30.6.12

पर न जाने बात क्या है

लखनऊ का असह्य ताप, प्रशिक्षण की गम्भीरता, सायं तरणताल में निस्पंद उतराना, कार्य से कहीं दूर आधुनिक मनीषी की तरह बहते दिन। जहाँ मन में एक अपराधबोध था, किसी को न सूचित करने का, वहीं एक निश्चिन्तता भी थी कि शेष समय अपना ही रहेगा। यद्यपि सामाजिकता के प्रति यह उदासीनता और अन्यमनस्कता किसी भी कोण से क्षम्य नहीं है, पर स्वयं को एकान्तवास में रखने का दण्ड भी भुगतना था, अपने को समझने के लिये समय चाहिये था। स्वार्थ सर चढ़ बोला और मैं अपने आगमन के बारे में मित्रों और शुभचिन्तकों को सूचित करने के स्थान पर मौन रहा।

एकान्त ढेरों सम्भावनायें लेकर आता है, लगता है कि अब अपने से बतियायेंगे, अपने मन को मनायेंगे, अपने को तनिक और जानेंगे। अब एकान्त काटता नहीं है, जो अपेक्षित रहता है यथासंभव दे ही जाता है। एक क्रम बन गया, सोने के पहले रामधारी सिंह दिनकर कृत 'उर्वशी' पढ़ने का, सोने की प्रक्रिया में उसे समझने का, और उठने के पश्चात उसे गुनने का। रात्रि को कल्पनालोक में बिचरने का पूरा वातावरण था, श्रृंगार-ऊर्मियों में बहकने की प्रचुर सामग्री थी, पर शरीर दिनभर की थकान के बाद निढाल निद्रा में मन के आग्रहों को कल पर टालता रहा, हर रात।

पुरुरवा सनातन नर का प्रतीक है, उर्वशी सनातन नारी की, दिनकर की आधारभूत संकल्पना में स्वयं को रखकर, अपनी विवशताओं के आवरण में उर्वशी को समेटने का प्रयास करता रहा। यह समझने का प्रयास करता रहा कि सब कुछ पाने के बाद भी प्यास क्यों नहीं बुझती है, क्या पाना शेष रह जाता है? दिनकर मानते हैं कि नर के भीतर एक और नर रहता है और नारी के भीतर एक और नारी, उनको ही पाकर प्रेम को संतुष्टि मिलती है, प्रेम को अपने अस्तित्व का उत्कर्ष मिलता है। अपने अन्दर के एक और नर को अपने वाह्य आवरण से अलग रखने और नारी के भीतर की नारी की झलक को अपनी स्मृतिकक्षों से सहेज लाने का प्रयास करता रहा।

बात गहरी हो चली थी, सतही-श्रृंगार की कल्पना निस्तेज थी। उर्वशी की काव्यमयी पंक्तियाँ रह रहकर मन को प्रेम के उस पंथ पर ले जाने को तैयार बैठी थीं, जहाँ सनातन नर को सनातन नारी के अन्तरतम के दर्शन होने थे।

आकर्ष का संचार, संचार की मात्रा और मात्रा की गणित, सब का सब समझना था शब्दों के माध्यम से। प्रायोगिक प्रकरण तो बहुधा हमें हतप्रभ सा अकेला छोड़ चुके थे, न जाने कितनी बार। स्वयं को समझने का प्रयास तो तब भी किया जा सकता है, आप अपने मन से बातें कर सकते हैं, पर उस अग्नि को कैसे समझेंगे जिसके प्रभाव में आते ही दिग्भ्रम हो जाता है, मन और विचार अस्थिर हो जाते हैं, हृद के स्पंद अनियन्त्रित से अपना आश्रय ढूढ़ने लगते हैं। आप भी पुरुरवा की तरह प्रश्न पूछते फिरते हैं,

पर न जाने बात क्या है,
इन्द्र का आयुध, पुरुष जो झेल सकता है,
सिंह के बाहें मिलाकर खेल सकता है,
रूपसी के सामने असहाय हो जाता,
शक्ति के रहते हुये निरुपाय हो जाता,
बिद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से,
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से।

काश मुनियों की तपस्या भंग न हो, वे सिद्ध हैं, वे इस तत्व को समझकर इससे पार पाने में सक्षम भी हैं। हम असहाय हैं, इस आकर्षण को समझने में असमर्थ, हतप्रभ और स्थिर हैं।

स्वीकार है कि कई बार अपेक्षित को पा न पाने का क्रोध राह भरमाता है, बहुधा मन दुख से भर जाता है, जीवन भर उस राह में न बढ़ने के प्रण तक कर बैठता है, पर फिर भी इस विषय का सत्य जानने को मन उत्सुक रहता है। एक अद्भुत सी पुरुवाई बह रही है जगत में, प्रकृति में, जो सदा ही मन की जिज्ञासा और आनन्द की उत्कण्ठा प्रेम की राह में बलवत ले जाती है।

प्रश्नों की अग्नि में अनुभवों की आहुतियाँ पड़ रही हैं, प्रेम के सिद्धान्त अनमने हैं, अपने ऊपर किसी का नियन्त्रण नहीं चाहते हैं। पुरुरवा थोड़ा समझ आता है, लगता है उसमें संभवतः वही आकांक्षायें अतृप्त रही होंगी जो कि हम सब में हैं। उर्वशी भी थोड़ी समझ आती है, अपने हृदय का आह्लाद उसकी प्रेम तरंगों का संकेत भर है।

वापस आ गया हूँ, लखनऊ की तपन पर भले ही बंगलोर ने शीतल फुहार छिड़क दी हो, पर उर्वशी का पढ़ना और उर्वशी की खोज अब तक जारी है, 'उर्वशी' के बीच पृष्ठों में विचारों और अंगारों के बवंडर अब भी उठ खड़े होते हैं। दिनकर की 'उर्वशी' को पढ़ना अपनी सनातन उर्वशी को जानने का संकेत है, अन्तहीन को समझने का संकेत है।

27.6.12

सहज मिले सो दूध सम

सुभाषितों में सदियों के अनुभव का निचोड़ छिपा रहता है, पाठ्यक्रम में कुछ सुभाषित थे, अभी तक याद हैं। उन्हें भूलना संभव ही नहीं, कोई न कोई ऐसी परिस्थिति आ ही जाती है जिसमें वे शतप्रतिशत प्रयुक्त होते हैं। पंचतन्त्र, हितोपदेश, गीता, रामचरितमानस, कबीर और न जाने कितने स्रोतों में ज्ञान के ऐसे गूढ़ तत्व छिपे हैं जो कि न केवल पढ़कर याद किये जायें वरन समय आने पर जीवन में उपयोग भी किये जायें। यह अलग विषय है कि आधुनिक शिक्षा पद्धति में इस प्रकार के सहज और ग्राह्य ज्ञान को बेसिरपैर की तुकबंदियों से भी अधिक हीन समझा जाता है। बुद्धिहीनता को रंगहीनता मानकर परोस देने का निष्कर्ष भी रंगहीन रहता है, परीक्षा के बाद उन्हें भूल न जाने का कोई कारण ही नहीं। जिन तुकबंदियों की बस अंक देने की उपादेयता हो, उनसे अधिक अपेक्षा क्यों रखी जाये भला?

ये सुभाषित केवल ज्ञानियों की ही विचारणीय सामग्री नहीं रही है, वह समाज के अशिक्षित व अर्धशिक्षित वर्ग के लिये सहजता से उपलब्ध है। अशिक्षित ग्रामीण भी जब अपने बेटे को अच्छी संगत के बारे में बताना चाहता है, तो वह भी तुलसीदास की वही चौपाई उद्धृत करता होगा, 'सात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिय तुला एक अंग, तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सत्संग'। जब ज्ञान ही गेय हो जाये तो उससे अधिक उपयुक्त क्या हो सकता है, शब्द ज्ञान के लिये।

शिक्षा पद्धति जब जागे, तब जागे, हम बौद्धिक गुणवत्ता के प्रति जगे रहते हैं। ऐसे अमूल्य रत्नों को सुनना, मन में गुनना और फिर जीवन में उतारना, ऐसा लगता है कि किसी ने हाथ में कभी न समाप्त होने वाले रसना का पात्र दे दिया है। जितनी बार पढ़ते जाते हैं, सुनते जाते हैं, अर्थ और स्पष्ट होता जाता है। ज्ञान का अथाह अंबार भरा है सुभाषितों में, जब भी अवसर मिलता है, पढ़ता हूँ।

न्यूनतम-श्रमतन्त्रों से भरे इस विश्व में जब परिश्रम के बारे में स्वयं को आश्वस्त करना होता है तो सहज ही 'उद्यमेन हि सिद्धयन्ति, कार्याणि न मनोरथैः' याद आता है। जहाँ पराक्रम की आवश्यकता दिखती है, वहाँ 'वीरा भोग्या वसुन्धरा' याद आता है। जहाँ परिस्थियाँ अस्थिर करने के प्रयास में रहती हैं, वहाँ 'न दैन्यं न पलायनम्' का उद्घोष उठता है। जब नीरवता छा जाती है, तो 'सुख दुखे समेकृत्वा' का स्मरण हो आता है। ऐसे न जाने कितने ज्ञानसिंधु वाक्य हैं जो अतिसामान्य से अतिविशेष, सभी परिस्थितियों में अपना महत्व स्पष्ट कर जाते हैं।

ऐसा नहीं है कि अपनी संस्कृति में प्रति नैसर्गिक आकर्षण ही इस अनुराग का कारण है। निश्चय ही सत्य की खोज का प्रथम आधार वह होता है, पर अपनी संस्कृति के बाहर भी ज्ञान का आधार स्वीकार है और जितना अधिक अन्य संस्कृतियों और सभ्यताओं को जानता हूँ, अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा और प्रबल होती जाती है। उस पर भी यह ज्ञानमयी आधार प्रेम को सहज स्थायित्व दे जाता है।

कई प्रश्न होते हैं जो उत्तरित होने में समय लेते हैं। धन के प्रति अधिक मोह न पिताजी में देखा और न ही कभी स्वयं को ही मोहिल पाया। ऐसा भी नहीं था कि धन के प्रति कोई वितृष्णा रही हो। अधिक धन के प्रति न कभी जीवन को खपा देने का विचार आया और न ही कभी वैराग्य ले हिमालय प्रस्थान की सोच। जितना है, जो है, सहज है। जहाँ धन की सर्वोच्चता स्वीकार नहीं रही है, वहीं कभी धन के महत्व को नकारा भी नहीं है। यह सोच समाज-मत से भिन्न अवश्य हो सकती है, पर हमारी प्रसन्नता का संसार वहीं बसता है। इस स्वभाव को समझा पाना बहुधा कठिन हो जाता था, बस मन यही कहता था, कि हम ऐसे ही हैं, ईश्वर ने अधिक रुचि लेकर हमें नहीं बनाया।

जब भी कोई दोहा या सुभाषित आपकी विचारशैली से अनुनादित होता हुआ मिलता है तो ऐसा लगता है कि आपकी जैसी मनःस्थिति इस धरा में पहले भी आ चुकी है, आपको सहसा किसी के साथ होने का अनुभव होने लगता है, आपको सहसा सहारा मिल जाता है। ऐसा लगता है किसी ने आपको ही लक्ष्य करके यह लिखा है या लगता है कि बस यही उत्तर है जो प्रश्नभरी आँखों में जाकर झोंक आओ।

बस ऐसे ही विचार तब आये जब कबीर का यह दोहा पढ़ा,

सहज मिले सो दूध सम, मांगा मिले सो पानि
कह कबीर वह रक्त सम, जामें एंचातानि।

आशय स्पष्टतम है, जो सहजता से प्राप्त हो वह दूध जैसा है, जिसके लिये किसी से झुककर माँगना पड़े वह पानी के समान है और जिसके लिये इधर उधर की बुद्धि लगानी पड़े और दन्द-फन्द करना पड़े वह रक्त के समान है। किसी घर में संपत्ति संबंधी छोटी छोटी बातों पर जब झगड़ा होते देखता हूँ तो बस यही दोहा मन ही मन बुदबुदाने की इच्छा होती है। भाईयों का रक्त बहते तक देखा है, यदि न भी बहे तो भी संबंधों का रक्त तो निश्चय ही बह जाता है, संबंध सदा के लिये दुर्बल और रोगग्रस्त हो जाता है।

बहुत लोग ऐसे हैं, जिन्हें छोटी छोटी बातों के लिये झगड़ा करना तो दूर, किसी से कुछ माँगना भी नहीं सुहाता है। ऐसे दुग्धधवल व्यक्तित्वों से ही विश्व की सज्जनता अनुप्राणित है। ईश्वर करे उन्हें उनके कर्मों से सब सहज ही मिलता रहे। ईश्वर करे कि जो ऐसी आदर्श स्थिति में नहीं भी है, उन्हें भी कम से कम वह रक्त तो दिखायी पड़े जो हमारे छलकर्मों से छलक आता है।

मनन कीजिये, मन स्वीकार करे तो भजन कीजिये, कबीर के साथ, 'सहज मिले तो....'

23.6.12

अच्छा होने की कठिनाईयाँ

पहले यह स्पष्ट कर दूँ कि इस विषय में लिखने की योग्यता और अधिकार, दोनों ही मेरे पास नहीं है, योग्यता इसलिये क्योंकि इस विषय पर अब भी मैं भ्रम लिये जीता हूँ, अधिकार इसलिये क्योंकि मैं इतना अच्छा भी नहीं हूँ कि अच्छाई पर साधिकार लिख सकूँ। मेरे पास भी मेरे हिस्से की बुराईयाँ हैं, सहेजे हूँ, चुप रहता हूँ, उनसे लड़ता नहीं हूँ, संभवतः उतनी शक्ति नहीं है या संभवतः उतनी ऊर्जा नहीं है जो उन पर व्यर्थ की जा सके। कुछ तो इस उपेक्षा से दुखी होकर चली गयी हैं, कुछ धीरे धीरे चली जायेंगी। जो रहेंगी, वो रहें, पर उन्हें अपने पूरे जीवन पर अधिकार नहीं करने दूँगा।

प्रश्न पर स्वाभाविक है, क्या अच्छा होने से कठिनाईयाँ कम हो जाती है, क्या है जो आपको अच्छा होने पर मिल जाता है, क्या अच्छा होना सच में इतना आवश्यक है? जब हम प्रश्नों का उत्तर स्वयं से नहीं पाते हैं तो उसका उत्तर बाहर ढूढ़ते हैं, वर्तमान में, भूतकाल में, घटनाओं में, ग्रन्थों में। भले ही ऐसे प्रश्न जीवन भर अनुत्तरित रहें पर अतार्किक और भ्रामक उत्तरों से संतुष्ट न हो बैठें।

इन प्रश्नों को समझने और उसका उत्तर ढूढ़ने में गुरचरनदास ने महाभारत का आधार लिया है। बड़े ही चिन्तनशील लेखक हैं, उन्होंने महाभारत का न केवल विधिवत अध्ययन किया है वरन उसके पहले के ३० वर्षों में अपने कार्यक्षेत्र में उस महाभारत को जिया है। व्यावसायिक युद्ध में निरत किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के शीर्ष तक पहुँचने के क्रम में ये प्रश्न नित ही आते होंगे। उन्होंने महाभारत क्यों चुनी, इसका स्पष्ट उत्तर उन्होंने अपनी पुस्तक 'द डिफ्कल्टी ऑफ बीईंग गुड' में नहीं दिया है, पर महाभारत में ऐसे उदाहरणों की बहुतायत है जिससे यह द्वन्द्व गहनता से समझा जा सकता है। पोस्ट का शीर्षक उनकी पुस्तक के नाम का हिन्दी अनुवाद भर है।

बड़ा ही मूल प्रश्न है, सबको दिखता भी है, कि जहाँ एक ओर बुरे लोग आनन्द में रहते हैं अच्छे लोगों को सारी कठिनाईयाँ झेलनी पड़ती हैं। तिकड़मियों का गुणवानों की तुलना में विश्व पर अधिक अधिकार है, अनुपात से बहुत अधिक। ऐसा नहीं कि यह स्थिति आज ही उत्पन्न हो गयी, महाभारत के समय भी दुर्योधन और शकुनि अपनी धूर्तता से सारे राज्य पर अधिकार किये बैठे थे। अच्छों के किये कार्यों का फल जब निठल्ले उठाते हैं तो कोफ्त होना स्वाभाविक है। अच्छे लोगों का व्यवस्था से विश्वास संभवतः यही देख कर डगमगाता होगा, उनकी तटस्थता का यही एकमेव कारण होगा।

कई वर्ष पहले 'ऐन रैण्ड' नामक लेखिका की बहुचर्चित पुस्तक पढ़ी थी, 'द एटलस श्रग्ड'। उसकी भी मूल की अवधारणा में यही बात थी कि किस तरह अच्छे कर्मों के फल को असहाय रिसने से रोका जा सके, किस तरह एक अलग विश्व बनाया जा सके जिसमें अच्छे लोगों को अपने श्रम और बुद्धि के अनुसार मान मिल सके, सुविधायें मिल सकें, धन मिल सके। मानवता और समाज के नाम पर लगा ब्याज अच्छे लोगों से उनका मूल भी छीन लेता है, कठिनाई में जीते हैं अच्छे लोग। वहीं बुरे लोग संसाधनों के बँटवारे में सदा विजयी होते हैं।

कहने को तो अन्ततः महाभारत में भी पाण्डवों की विजय हुयी, धर्म की विजय हुयी, सत्यमेव जयते। पर क्या वह सत्य जीत पाता यदि कृष्ण पाण्डवों का साथ न देते? क्या युधिष्ठिर की नीतिप्रियता और धर्मनिष्ठता अपने आप में पर्याप्त थी, महाभारत का युद्ध जीतने के लिये? संभवतः नहीं, कौरवों को जिताने के लिये भीष्म स्वयं ही पर्याप्त थे, यदि वह एक या दो दिन और जीवित रहते। कृष्ण ने युद्ध जीतने को जिन उपायों का सहारा लिया, उसे धर्मयुद्ध से अधिक छलयुद्ध की संज्ञा दी जा सकती है। भीष्म, द्रोण, कर्ण और अन्ततः दुर्योधन, सबका अन्त छल से ही किया गया।

अच्छाई धारण करने के लिये अत्यधिक सहन शक्ति चाहिये, जो अच्छे लोगों में होती भी है, युधिष्ठिर में थी। जब यही सहनशक्ति अन्याय सहन करने में लगायी जाती है, तो अच्छाई की मात्रा हर ओर से सिकुड़ने लगती है, बुराई अनियन्त्रित सी फैल जाती है, दुर्योधन की तरह। कोई कृष्ण तब बताता है कि क्या किया जाये और कैसे किया जाये, जिससे अच्छाई बची रहे।

सत्य अपने आप अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रहता है, कोई सत्यमेव जयते का उद्घोष करने वाला होना चाहिये। तभी वह बचा रहता है और अन्ततः जीतता भी है। अच्छाई की कठिनाईयों को समझने के लिये महाभारत की समझ हो और साथ ही हो समझ कृष्ण-प्रदत्त-हल की जिसके कारण सत्य टिक सका। जीवन भी किसी महाभारत से कम नहीं है, पर यह निश्चय भी नहीं कि हर महाभारत में धर्म और सत्य की विजय ही हो।

20.6.12

संबंधों की एकात्म उपासना है 'मेरे गीत'

रात आठ बजे राजधानी से निकलना था, एक सप्ताह के प्रशिक्षण के लिये, लम्बी ट्रेन यात्रा प्रतीक्षा में थी। सायं जमकर फुहारें बरसी थीं, सारी प्रकृति द्रवित थी, पानी के छोटे छोटे कण हवा का सोंधापन परिष्कृत कर रहे हैं। मन अनमना सा था। पिताजी पास के पार्क में टहलने गये थे, बेटा फुटबाल खेलने गया था, श्रीमतीजी बिटिया को ड्रॉइंग क्लास से लाने के लिये गयी थीं। घर में माँ कोई पुस्तक पलट रही थी, माँ को कहा कि चलो बाहर टहलने चलते हैं, आधे घंटे तक हम साथ साथ टहलते रहे। मन में परिवार से एक सप्ताह तक दूर रहने का सूनापन कचोट रहा था, अपनों से दूर रहने का भाव एक विशेष नीरवता ले आता है, वातावरण में।

यात्रा के लिये पुस्तकें रख रहा था, उर्वशी रखी, रानी नागफनी की कहानी रखी, तभी बेटा एक पैकेट लाता है और कहता है कि कुरियर से आया है। लिफाफा खोला तो अन्दर से सतीश सक्सेनाजी का स्नेह पुस्तक का रूप धरे निकला, 'मेरे गीत' की एक प्रति मेरे हाथों में थी। संयोग देखिये कि जिस समय उस पुस्तक की मुझे सर्वाधिक आवश्यकता थी, वह उसी समय मेरे हाथों में थी। संबंधों के एकात्म उपासक ने अपने उपासना मंत्रों को शब्दों में सजाकर मुझे भेज दिया था।

जब ईश्वर को प्रयोग की सूझती है तो आगे आगे संयोग भेज देता है। ट्रेन में एक कूपे मिला और अगले १२ घंटों तक कोई सहयात्री नहीं। एकात्म उपासना के गीतों को पढ़ने के लिये इससे अधिक उपयुक्त वातावरण असंभव था।

माँ की ममता को व्यक्त कर पाना कठिन कार्य है। जो माँ नहीं है, उसके लिये इसका अनुमान लगाना और भी कठिन है। जब धूप से ही सब तृप्ति और पोषण मिल जाये तो सूर्य के गर्भ की ऊष्मा कोई कैसे मापे भला? संयोगी वात्सल्य की तुलना में वियोगी वात्सल्य कितना तीक्ष्ण हो सकता है, इसका अनुमान 'मेरे गीत' के उन गीतों से मिलता है जिनमें सतीश सक्सेना जी ने माँ से बिछोह की पीड़ा को कागज में उड़ेल दिया है।

बचपन के अनुभवों ने सतीश सक्सेना जी को भावों का वह असीम अंबार दे दिया जिसमें संबंधों का मर्म छलकता है। हर संबंध में उन्हें एक अधिनायक की तरह स्थापित करती हैं उनकी कवितायें। जिस स्थिति को हम आदर्श मान कर छोड़ बैठते हैं, उस सत्य को जीने की आत्मकथा है 'मेरे गीत'। विशेषकर पुत्रवधुओं के प्रति उनका स्नेहिल आलोड़न उन्हें एक आदर्श श्वसुर के रूप में संस्थापित करता है, हर बेटी का पिता संभवतः ऐसा ही घर चाहता है अपनी लाड़ली बिटिया के लिये।

पुत्र, भाई, पति और पिता के हर रूप में एक स्पष्ट चिन्तन शैली प्रतिपादित होती है उनकी कविताओं में। समर्पण और निष्ठा का भाव, हर किसी के लिये कुछ कर गुजरने का भाव, परिवार के स्थायी आधार-स्तम्भ बने रहने का भाव। सहज संबंधों का स्नेहमयी इन्द्रधनुष सामाजिक सहजीवन को भी सौन्दर्यमयी कर जाता है, आत्म का सरल और सहज प्रक्षेपण। सतीश सक्सेना जी के गीत बड़े बड़े विवादों को बड़ी सरलता से समाधान की ओर खींचते हुये दिखते हैं।

दर्शन, जागरण, अध्यात्म, हास्य, जीवन उद्देश्य आदि विषयों की छिटकन संबंधों के गीत को सुर देती है। सुर जो गीतों को और भी रोचक और गेय बनाते हैं। 'मेरे गीत' जीवन अनुभवों का संक्षिप्त पर पूर्ण लेखा जोखा है।

जब सारी की सारी जिम्मेदारी शब्दों पर ही छोड़ दी गयी है, और जब शब्दों ने उस अर्थ को सशक्त भाव से संप्रेषित भी किया है, तब किसी कविता विशेष के बारे में चर्चा करना उन शेष १२१ रत्नों को छोड़ देना होगा जो सतीश सक्सेना जी के हृदय से प्रस्फुरित हुये हैं।

मेरी श्रीमतीजी कोई अवसर नहीं छोड़ती हैं आपका एक गीत उद्धरित करने का, 'हम बात तुम्हारी क्यों माने'। विशेषकर अन्तिम पद हम पतियों का हृदय विदीर्ण करने के लिये पर्याप्त है। यदि कभी भविष्य में नारियों ने पतियों के विरुद्ध सामूहिक अवज्ञा आन्दोलन चलाया तो सारा दोष आपकी इसी कविता को दिया जायेगा। तब आप पोषितों की पंक्ति में और हम शोषितों के समूह में खड़े होंगे।

'मेरे गीत' हम सबके गीत हैं, हम सबके हृदय के उन भावों के स्वर हैं जो प्रकट तो होना चाहते हैं पर जगत को जटिल मानकर सामने आने से हिचकिचाते हैं। संबंधों के तन्तु जितने जटिल दिखते हैं, उतने हैं नहीं। संबंधों को समझना और निभाना आवश्यक है, उनसे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। प्रयास तो करना ही होगा, संबंधों की उपासना के मंत्रों को गुनगुनाना होगा, जीवन में 'मेरे गीत' गाना होगा।

16.6.12

स्वतन्त्र देवता

जीवन की प्राथमिकतायें संस्कृतियों के निर्माण में अहम योगदान देती हैं। जब धन की प्राथमिकता होती है, सारे तन्त्र बाजार का रूप धर लेते हैं, यहाँ तक कि मन्दिर भी बाजार की प्रवृत्ति से प्रभावित दिखते हैं। जब विकास प्राथमिकता होती है, हर घर कारखानों का एक उपभाग सा लगने लगता है, दिनचर्या मशीनों से कदमताल करने लगती है। जब स्वतन्त्रता शापित होती है, हर शब्द क्रांति का स्वर बन जाता है, हर युवा मर मिटने को तैयार घूमता है। और जब देश की पुनर्रचना का समय होता है, हर व्यक्ति मजदूर बन जाता है। हर दिन ईंट, हर रात गारा और निर्मित होती जाती है एक सुदृढ़ और स्थायी संरचना।

संस्कृति का रूप बड़ा ही धीरे प्रभाव डालता है, बहुत समय तो पता ही नहीं चलता है कि क्या परिवर्तन हो रहा है। जब वह प्रभाव स्थूल रूप से परिलक्षित होता है तब तक वह हमारे गुणसूत्रों में आ चुका होता है। तब पीढ़ियों का अन्तर संस्कृतियों के अन्तर में परिलक्षित होने लगता है। एक साथ ही कई पीढ़ियाँ, कई सामाजिक समूह, कई संस्कृतियाँ, हमारे देश में ही साथ साथ बसी हुयी हैं, कभी कभी तो शहर के अन्दर ही आपको इस विविधता के दर्शन हो जाते हैं।

पिछले दो वर्षों में प्राप्त अनुभव के आधार कह सकता हूँ कि एक नया सांस्कृतिक झोंका आ रहा है। जो परिवेश के बदलाव पर सतत ध्यान रखते हैं, उन्हें भी इसकी आहट आने लगी होगी। इस बदलाव में बहुत कुछ न केवल बदला बदला सा दिखने वाला है वरन खटकने भी वाला है, विशेषकर तब तक, जब तक उसके अभ्यस्त न हो जायें हम। जितनी बार भी मॉल जाता हूँ, यह विश्वास और भी दृढ़ होता जाता है। भविष्य का जो खाका समझ में आता है, हर बार की मॉल यात्रा उसी भविष्य-दिशा को स्थापित करती हुयी सी प्रतीत होती है।

जब कभी भी आप मॉल में जाते हैं, धीरे धीरे वहाँ का वातावरण आप पर प्रभाव डालने लगता है, आप शारीरिक रूप से सहज हो जाते हैं, शीतलता अस्तित्व में बसने लगती है। चारों ओर चमकती दुकानों के प्रकाश में आपका चेहरा और दमकने लगता है, लगता है जैसे तेज अन्दर से फूट रहा हो। धीरे धीरे आप भूलने लगते हैं कि आप किस देश में जी रहे हैं, वहाँ की क्या समस्यायें हैं? आपके सामने ऐश्वर्य, प्रसन्नता, उत्सव का वातावरण होता है, सब के सब अपना श्रेष्ठ समय बिताने आये होते हैं वहाँ। आप जिस दुकान में जाते हैं, सारे के सारे सेल्समानव आदर के साथ आपके स्वागत में लग जाते हैं, आपके सारे प्रश्नों के उत्तर देने में तत्पर। आप 'स्वतन्त्र देवता' जैसा अनुभव करने लगते हैं।

आप लोग खाते पीते हैं, खरीददारी करते हैं और फिल्में आदि देखकर वापस आ जाते हैं, एक पिकनिक सा मना कर। बच्चे भी प्रसन्न हो जाते हैं, आपको भी परिवार के मुखिया के रूप में लगता है कि आपने अपना पारिवारिक कर्तव्य अच्छे से निभा दिया। कभी कभी आप मॉल-भ्रमण को एक हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं, बच्चों से कोई कार्य करवाने के लिये।

यहाँ तक तो सब कुछ अच्छा लगता है, साथ ही लगता है कि देश बढ़ रहा है, अच्छे परिवेश में सामान को कम मूल्य में उपलब्ध कराने का प्रयास सबको भा भी रहा है। खुदरा व्यापारी और साम्यवादी इसे अर्थव्यवस्था में आ रहा अनचाहा बदलाव भी मानते हैं। संभवतः वे नहीं चाहते कि आप स्वतन्त्र देवता जैसा अनुभव करें। जैसा भी हो, यह उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है, बंगलोर में ही हर वर्ष पाँच-छह बड़े मॉल तैयार हो रहे हैं, लोगों के लिये भी एक अलग और सुखद अनुभव है इस तरह सामान खरीदना, और वह भी लगभग किसी भी खुदरा बाजार के समकक्ष मूल्यों पर।

यहाँ आर्थिक धारायें अपना मार्ग बदल रही हैं, छोटी छोटी नहरों का स्थान एक विशाल नदी ले रही है, जैसे भी हो, जल बह रहा है। पर एक बात है जो हर बार खटकती है, और जो संस्कृति को प्रभावित करने की क्षमता भी रखती है। वह है, इन मॉलों में हो रहे व्यवहार की कृत्रिमता। वहाँ जाकर जो आदर आपको मिलने लगता है, वह बहुत ही कृत्रिम सा लगता है। बाज़ार व्यवस्था का इसमें बहुत बड़ा योगदान है, धन का मान है। कोई गरीब हैं तो उसका अपमान अत्यन्त प्राकृतिक है। किसी के हाथ में पैसा है तो उसका सम्मान कृत्रिम है, उसे समाज में कोई आदर दे न दे, बाज़ार में उसे शत प्रतिशत मान मिलता है।

ध्यान से देखा जाये तो मॉलों में कार्य करने वालों में यह व्यवहार कूट कूट कर भरा जाता है, बस कुछ ही नये कर्मचारियों में एक हिचक दिखायी पड़ जाती है। २०-२१ साल के युवा लड़के जो नयी संस्कृति के प्रभाव में घर में अपने बड़ों का आदर करना भूल गये हैं, उन्हें भी प्रारम्भ में हिचक होती है, कालान्तर में घर के बड़ों का आदर करना आये न आये, मॉल में आये धनाड्य का आदर करना आ ही जाता है। जो लड़के भले और संस्कारी परिवारों से भी आते हैं, उन्हें भी प्रारम्भ में हिचक होती है, उन्हें गुणों को छोड़ धन को आदर देने में हिचक होती है, धीरे धीरे उन्हें भी यह छद्म गुण सीखना पड़ता है। कृत्रिमता का आवरण दोनों को ही खटकता है और खटकता है उन सबको भी, जिनको इस प्रकार की कृत्रिमता में घुटन सी होती है। स्वतन्त्र देवता का भाव स्थायी नहीं है, कुछ ही बार सुहाता है, बाद में आपकी विचारशीलता आपको कचोटने लगती है।

मानसिकता क्या है, यदि सामान की गुणवत्ता अच्छी है तो कृत्रिम आचरण की आवश्यकता कहाँ है? यदि सामान की गुणवत्ता अच्छी नहीं है तो इस तरह का आचरण विश्वास-हरण की श्रेणी में आता है। मुझे लगता है कि यह किसी सत्य पर पर्दा डालने जैसा है, यह संदेश पर कोलाहल डालने है। लगता है कि पहाड़ों को काट कर और गढ्ढों को पाट कर सारे विश्व को समतल बनाने की संस्कृति आ रही है। वह संस्कृति, जहाँ सबको लगता है कि वे स्वतन्त्र देवता हैं, जबकि उसका पूरा आधार धन की दासता का है।

अब तो जब भी मॉल जाता हूँ, थोड़ा सहमा रहता हूँ, कहीं कोई कृत्रिमता प्रभाव न छोड़ जाये मानसिकता पर।

13.6.12

इमामबाड़े से व्यक्तित्व

यह तो सुना था कि भवनों के नाम महापुरुषों के नाम पर रखे जाते हैं। सही भी है, निर्जीव भवनों को इसी बहाने कोई नाम मिल जाता है, महापुरुषों का नाम मिल जाता है, उनका जीवन बस इसी बात से धन्य हो जाता है। पहचान के लिये नाम आवश्यक भी होता है, बिना नाम अनाथ जैसा लगता होगा, निर्जीव भवनों को।

दो उद्देश्य रहते होंगे, नाम रखने के। पहला, यह जताने के लिये कि किसने उसका निर्माण कराया, सम्पन्नता को अनाम रखना सच में कितना कठिन कार्य रहा है, सदियों से। दूसरा, भवन के सहारे ही सही पर स्वयं को अमरत्व प्रदान कराने के लिये भी नामकरण होता होगा, सही भी है क्योंकि भवन मानवों से कहीं अधिक जीते हैं। जब कभी औरों को प्रसन्न करना अधिक आवश्यक होता है तो भवन आदि का नामकरण एक विशेष उद्देश्य सिद्ध करने लगता है। भवन के साथ साथ नगर के मार्ग, चौराहे, उपवन, पुल आदि किसी न किसी का नाम ग्रहण करने को उतावले रहते हैं, सत्तासीनों की सुविधानुसार। बेनामों और बेजानों के नामकरण के बाद उस महापुरुष के गुण उसके निर्जीव वातावरण को जीवन्त कर देते होंगे। तब सड़कों में चलने वालों में और भवनों में रहने वालों में चरित्र उत्थान और व्यक्तित्व निर्माण की पूर्ण संभावनायें बनी रहती होंगी।

संक्षिप्त में कहा जाये तो अभी तक भवनों को औरों से प्रभावित होते ही देखा है, औरों को नाम ग्रहण करते ही सुना है। ऐसा नहीं है कि भवनों में कोई विशेष गुण नहीं होता है, कुछ गिने चुने भवनों में ही वह गुण होता है जो विशेषण के रूप में प्रयुक्त किया जा सके। ताजमहल का सौन्दर्य, पीसा की मीनार का तिरछापन आदि विशेष गुण हो सकते हैं और उनका हम उपयोग भी कर सकते हैं।

सब कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था मन्दिया रही है। लग भी रहा है, डालर फूल रहा है, रुपया सिकुड़ रहा है। अर्थव्यवस्था की जटिलतायें हमको समझ में नहीं आती हैं, जैसा लोग समझाते हैं, हम समझ जाते हैं। सुना था कि बहुत समय पहले जब लखनऊ में अकाल पड़ा था, किसी को कोई काम नहीं था, तब सभ्रांत समाज को रात के समय कार्य करने का अवसर देकर वहाँ के नवाब ने न केवल उनका जीवन बचाया वरन इमामबाड़ा जैसा बड़ा भवन निर्मित करवा दिया।

जिनको ज्ञात न हो, उन्हें बताते चलें कि इमामबाड़ा अपने भूलभुलैया के लिये बहुत प्रसिद्ध है। गलियारों का जाल और ४८९ एक जैसे दरवाजों का होना ही भूलभुलैये का प्रमुख कारण है। न भूलने की ठान ली थी तो उस भवन के निर्माण को समझना आवश्यक हो गया था। भूलभुलैया को उसके निर्माण से पृथक रख कर देखना ही उसमें भटक जाने का प्रमुख कारण है। जो लोग गये होंगे वहाँ, उन्हें यह याद होगा कि भूलभुलैया प्रथम खण्ड में जाकर प्रारम्भ होता है, तीन परतों में ऊपर नीचे गलियारों, सीढ़ियों और दरवाजों की भटकन और सबसे ऊपर एक सपाट छत।

इमामबाड़े का वास्तु और स्थापत्य कौशल तब समझ में आया जब ऊपर से नीचे के विशालकाय हॉल में झाँका। न कोई खम्भा, न कोई बीम, न कोई सरिया, और ऊपर स्थित वृहदतम अर्धबेलनाकार छत, मेहराब शैली का निर्माण। गजब की कलाकारी है, सरल भाषा में समझा जाये तो एक विशाल भवन के ऊपर तीन मंजिला छप्पर। अब छप्पर पूरा ठोस तो बनाया नहीं जा सकता था, उसका भार इतना अधिक हो जाता कि वह स्वयं सहारा देने में विफल हो जाता। संभवतः इसीलिये उसे खोखला बनाया गया होगा, खोखले में गलियारों की दीवारों का प्रयोग नीचे की अर्धबेलनाकार छत और ऊपर की सपाट छत के बीच सततता बनाये रखने के लिये, सीढ़ियों का प्रयोग मेहराब के रूप में, और द्वारों का प्रयोग पूरे आकार को आपस में जोड़ने के लिये किया गया होगा।

इमामबाड़े जैसे भवनों का मर्म कहीं और छिपा है और हम उसके भूलभुलैये में खो जाते हैं। मर्म अन्दर छिपा होता है और हम आवरण में उलझ जाते हैं। जो दीवारें भार सहन करती हैं, उनसे अधिक महत्व भटकाने वाली दीवारों को मिलता है। मेहराबदार स्थापत्य का अद्भुत उदाहरण, रात में अपनी जीविका के लिये कार्य करने वालों की कहानी बन जाता है। यह आपाधापी या व्यर्थ में बहाये हुये श्रम का उदाहरण नहीं, वरन उन्नत योजनानुसार क्रियान्वित भवननिर्माण का उदाहरण है। इसके निर्माण की वैज्ञानिक प्रक्रिया और संबन्धित तथ्य निश्चय ही इतिहास के किसी भूलभुलैया में पड़े अपने बचावदल की राह देख रहे होंगे।

जो बड़े भवनों का सच है, वही सच बड़े महापुरुषों का भी है। उनकी उपाधियों, जीवनी, कार्यों आदि के आवरण के अन्दर छिपे भाव कभी उद्घाटित और स्थापित किये जाने के प्रयास ही नहीं किये जाते। बाहरी भूलभुलैया हमें इतना उलझा देता है कि हम यह भी याद नहीं रख पाते हैं कि मर्म में क्या है, नीचे का बड़ा हॉल जहाँ सबके लिये पर्याप्त स्थान है, समुचित और सुरक्षित स्थान।

शताब्दियाँ बीत गयी हैं, हम महापुरुषों का नाम भवनों को देते आये हैं। आज हम अपनी क्षुद्र समझ से अपने महापुरुषों के व्यक्तित्वों को इमामबाड़ा का स्वरूप देने में लगे हैं, मर्म कम, भूलभुलैया अधिक। गलियारों में भटकते भटकते कभी तो नीचे झाँकना होगा, और समझना होगा कि हम सब एक बड़े आकार के चारों ओर खड़े हैं, एक ही भवन में और एक साथ।

9.6.12

किंकर्तव्यविमूढ़

भगवान ने कोई भी चीज सीधी नहीं बनाई है, मीठे में ढंग से बीमारी तो कड़वे में औषधीय गुण डाल रखे हैं, भोग में दुख तो धैर्य में सुख छिपा रखा है, न्यूनता में दुख है तो अधिकता में भी दुख है। दिन में सम्पन्नता का सुख रात में चिन्ता बन जाती है, नींद न आने का कारण। वहीं दिन की विपन्नता और जी तोड़ श्रम रात का सुख बन जाता है, गाढ़ी नींद का सुख। मूढ़ अपनी मूढ़ता में प्रसन्न रह लेता है, विद्वान छोटा सा विकार देखकर उद्वेलित हो जाता है।

जहाँ पर इस तरह की अनिश्चितता या विरोधाभासी निष्कर्ष हों वहाँ किसी भी प्रकार के नियम बनाना समय व्यर्थ करना होगा। एक घटना, सबके ऊपर अलग अलग प्रभाव। एक परिवेश, सर्वथा अलग अलग व्यक्तित्व। पेड़ के पत्तों सा क्रम दिखता है जगत में। अधिक निकट जाकर देखेंगे, तो कुछ समझ नहीं आयेगा, किसी भी नियम से स्वतन्त्र। थोड़ा अधिक दूर जाकर देखेंगे तो छोटा होता जायेगा, बिन्दु सा, किसी भी नियम में प्रयुक्त।

इस मुक्त व्यवस्था में केवल दो ही निष्कर्ष समझ आते हैं। पहला, नियम के आभाव में सब विशेष हैं, एक के अनुभव दूसरे पर अधिरोपित नहीं किये जा सकते हैं, सबको अलग अलग समझना होगा। दूसरा, किसी को समझने के लिये बहुत अधिक निकट या बहुत अधिक दूर नहीं जाना चाहिये, कहीं मध्य से ही वह पूरा और स्पष्ट समझ में आयेगा।

समाजशास्त्री मेरे कथ्य से सहमत नहीं होंगे क्योंकि किसी भी बड़े समूह को समझने के लिये एक एक अवयव पर ध्यान नहीं दिया जा सकता, समूह का सम्मिलित व्यवहार ही उनके अध्ययन का आधार होता है। समाजशास्त्रियों का यह तर्क स्वीकार्य है पर हमारा अधिकतम व्यवहार समूह पर आधारित नहीं होता है, परिवार, निकटस्थों, मित्रों, वरिष्ठों और अधीनस्थों से हमारा व्यवहार व्यक्तिगत ही होता है। समाज आदि का अध्ययन भी अन्ततः व्यक्ति के व्यवहार-समुच्चय पर ही निर्भर होता है।

जब स्वयं की दृष्टि ही समष्टि समझने का माध्यम है तो स्वयं को समझना जगत को समझने का प्रथम सोपान है। अपना व्यवहार, अपनी अभिरुचियाँ, अपनी चाह, अपनी राह, सब समझ आती है, स्पष्ट होती जाती है धीरे धीरे। समस्या तब आती है जब अपनी समझ से दूसरे व्यक्तित्वों को समझने का प्रयास होता है। अपने जीवन की घटनायें इतनी जानी पहचानी लगती है कि वह नियम जैसी चिपक जाती हैं मानसिकता से। जब उस दृष्टि से दूसरों के जीवन की घटनायें देखी जाती हैं तो एक भ्रम सा लगने लगता है, मानव व्यवहार।

किंकर्तव्यविमूढ़ का अर्थ शब्द में ही छिपा है, किं कर्तव्य विमूढ़, क्या कर्तव्य हो इस बारे में विमूढ़ता। यह स्थिति हर एक के साथ आती है, अधिक इसलिये भी आती है क्योंकि नियमों में प्रकृति को बाँध पाना कठिन होता है, विशेषकर मानव प्रकृति को। आप क्या करते हैं ऐसी स्थिति में?

किंकर्तव्यविमूढ़ होने के गर्भ में या तो कोई व्यक्ति होता है या कोई घटना। कभी भी किंकर्तव्यविमूढ़ सी स्थिति आती है तो अपने नियत दो निष्कर्षों को ही लगाता हूँ। पहला तो उस व्यक्ति या घटना को विशेष मान लेता हूँ, सब नियमों से मुक्त, सब निष्कर्षों से परे, किसी उपाधि के अनुग्रह से निर्बन्ध, बस विशेष। ऐसा करने से संबंध की जड़ता लुप्त हो जाती है, प्राप्त गतिमयता का उपयोग उत्तर ढूढ़ने में प्रयुक्त होता है, एकल संबंध पर विचार होता है, एक ऐसा परिसीमन जहाँ समस्या और उसका उत्तर निश्चय ही विद्यमान होगा।

दूसरा कार्य होता है, मध्य में पहुँच जाना, वहाँ पर जहाँ से सब कुछ स्पष्ट दिखायी दे। यदि आत्मीय अधिक हो तो थोड़ी दूरी, यदि अपरिचित हो तो थोड़ी निकटता। मध्य खड़े होकर समस्या की समझ पूरी होती है। दूरदृष्टि और निकटदृष्टि के बीच कहीं अवस्थित है जीवन का संतुलन। बुद्ध का मध्यमार्ग दर्शन का प्रबल पक्ष हो सकता है पर मेरे लिये विमूढ़ता की स्थिति से बाहर आने का उपाय भर है।

जितनी बार भी किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति को इन दो निष्कर्षों पर मापा है, एक निश्चित उत्तर पाया है। पता नहीं आप कैसे बाहर आते हैं, इस स्थिति से?

6.6.12

वोडाफोन के वो

यह एक विशुद्ध गंभीर विषय है, हास्य से कोसों दूर। कृपया तेज हँसकर हम गृहस्थों की ध्यानस्थ अवस्था में विघ्न न डालें। हाँ, यदि हँसी न रुके तो मन ही मन हँस लें, क्योंकि मन ही मन हँसने से कभी किसी की भावनायें आहत नहीं होती। जहाँ औरों के ऊपर हँसना आनन्द देता है, अपने ऊपर हँसना परमानन्द। यदि अविवाहित हैं तो विवाहितों में अपना भविष्य देख कर हँसिये, यदि विवाहित हैं तो आपको हर अवस्था में आनन्द मिलेगा, दुख की तलहटी छूने के बाद तो सुख के अतिरिक्त कुछ शेष भी नहीं रहता है।

अमित श्रीवास्तवजी सोच विचार कर और बड़ा ही मौलिक लिखते हैं, उनकी एक पोस्ट से प्रेरणा, ऊर्जा और साहस पा कर हमने भी अपना जीवन अनुभव साझा करने का मन बनाया है। विषय में घुसने के पहले पात्र का परिचय आवश्यक है। 'वोडाफोन के वो' से अमितजी का तात्पर्य उस छोटे और प्यारे कुत्ते से है जो सदा ही अपने मालिक के साथ रहता है। वैसे तो कुत्ता स्वामिभक्त होता है, मेरे पास भी है, जर्मन शेफर्ड, मेरे मन की स्थिति को मुझसे बेहतर न केवल समझता है वरन जताता भी रहता है। हमसे वह भले ही प्रेम से रहे पर कभी कभी घर आने वाले उससे भय खा जाते हैं। पर वोडाफोन के प्रचार में आने वाला छुटकू कुत्ता न केवल स्वामिभक्त है वरन प्यारा भी है, हानिरहित और ग्लानिरहित।

अपने नेटवर्क की तुलना इस प्रकार के जीव के साथ करने का उद्देश्य वोडाफोन के लिये अपने नेटवर्क की पहुँच को प्रचारित करना था, जिसमें वह एक सीमा तक सफल भी रहा, पर यह प्रचार गाहे बगाहे एक ऐसी उपमा भी दे गया जो एक आदर्श पति को परिभाषित करने का समर्थ आधार बन सकती है। अब निवेदिताजी ने इस उपमा का प्रयोग अत्यधिक गर्व और संतुष्टि के साथ ही किया होगा। हम भी इसे उनका व्यक्तिगत मामला मान कर छोड़ दिये होते या भूल गये होते, यदि इस उपमा में हमें सब पतियों की झलक न दिखी होती।

पतियों को इस आधार पर पुरस्कृत भी किया जा सकता है कि उनमें 'वोडाफोन के वो' का भाव कितनी मात्रा में विद्यमान है। वोडाफोन को चाहिये कि वे एक पुरस्कार की घोषणा करें जिसमे 'वोडाफोन के वो' जैसे पतियों को समुचित सम्मान मिल सके। निर्णय के मानक तय करने के लिये एक विशेष समिति बनायी जा सकती है। पाठकगण चाहें तो अपने अंदर उपस्थित उन वांछनीय गुणों को बता भी सकते हैं, जिनको संकलित कर वोडाफोन के लिये एक पूरी प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार की जा सकती है।

ऐसा नहीं है कि 'वोडाफोन के वो' की विमायें केवल भौतिक ही हों, वह तो है ही, जहाँ जहाँ श्रीमतीजी जायें वहाँ जाना तो आपका कर्तव्य ही है। इसके अतिरिक्त आपके विचारों में, पहनावे में, जीवनशैली में, बैंक के खाते में, घूमने जाने में, बाहर खाने में, फिल्म देखने में, और न जाने कितने प्रभावित क्षेत्रों में 'वोडाफोन के वो' की प्रतिच्छाया दिखायी पड़ती है। हाँ, थोड़ा और जोर डालिये दिमाग पर और आपके व्यक्तिगत जीवन से कई क्षेत्र और संबद्ध उदाहरण निकल ही आयेंगे।

अभी तक तो लगता था कि इस प्रभाव से हम पर्याप्त मात्रा में मुक्त हैं पर आज ही सेपो की यह पोस्ट पढ़ते समय लगा कि ऐसा नहीं है। पोस्ट कपड़ों के ऊपर थी, होनी भी चाहिये, नारियों को कपड़ों से अत्यधिक लगाव जो होता है। मन का उत्साह रंगों से व्यक्त किये जाने की परम्परा रही है, अब बाल और कान तो रंगे नहीं जा सकते, तो सारा रंग कपड़ों में ही उतर आता है। अब उत्साह का रंग रोज एक जैसा तो हो नहीं सकता, कभी लाल होता है तो कभी पीला। उत्साह का आकार भी बदलना आवश्यक है, कभी साड़ी, कभी सूट, कभी लहँगा, कभी जीन्स। अब चाहते, न चाहते, ढेरों कपड़े हो ही जाते हैं, नहीं कुछ खरीद रहें हैं तो कोई संबंधी ही कुछ भेंट कर जाता है, कहाँ तक कोई सबको समझाये?

अब कपड़ों की खपत के क्षेत्र में घर का औसत देश के औसत से बहुत आगे न निकल जाये, इसीलिये हम बहुत कम कपड़े रखते हैं, अपने उपयोग के लिये, या कहें कि औसत बराबर करने में बुद्धत्व को प्राप्त हुये जा रहे हैं। कार्यालयीन उपयोग के कपड़ों के अतिरिक्त जीन्स और टीशर्ट ही पहनते हैं, दो नीली जीन्स और छह रंगों की टीशर्ट, सफेद, काली, स्लेटी, लाल, मैरून और ऑरेन्ज। अकेले कहीं जाने पर तो सफेद टीशर्ट ही चढ़ाते हैं, शेष पाँच रंगों की उपस्थिति श्रीमतीजी के रंग बिरंगे कपड़ों से मैच करने के लिये है।

यही करते हैं कि कनखियों से देख लेते हैं कि श्रीमतीजी की साजसज्जा में निखरा हुआ रंग कौन सा है, उसी रंग से मैच करती टीशर्ट चढ़ा लेते हैं और चुपचाप साथ में चल देते हैं, बिल्कुल 'वोडाफोन के वो' की तरह। कितना भी चाह लें, आप भाग नहीं सकते हैं, स्वीकार कर लीजिये, वोडाफोन जैसी बड़ी कम्पनी के साथ जुड़ने का सौभाग्य मिल रहा है, उसका लाभ उठाईये, जमीनी वास्तविकता तो बदलने से रही, जैसी थी वैसी ही बनी रहेगी। आप समर्थ हो पायें या न हो पायें पर 'वोडाफोन के वो' का भाव पतियों की निष्ठा नापने में एक समर्थ मानक सिद्ध होने वाला है

2.6.12

क्यों दूँ दोष विधाता को?

आँख खुली हो, फिर भी पथ पर, समुचित चलना न आया,
दीप, शिखा और तेलयुक्त हो, तब भी जलना न आया,
मन भी रह रह अकुलाता हो बँधा व्यथा के छोरों में,
आन्दोलित हो, अवसानों का कारण ढूढ़े औरों में,

पर अनुभव के सोपानों में जितना चढ़ता, बढ़ता हूँ,
अपने मन से निष्कर्षों पर प्रतिपल प्रतिक्षण लड़ता हूँ,
अपना जीवन, लेखक बनकर लिखता हूँ निज गाथा को,
काँटे पग में, पीड़ा अपनी, क्यों दूँ दोष विधाता को?