30.5.12

लिखना नहीं, दिखना बन्द हो गया था

फेसबुक से विदा लिये ३ महीने और ट्विटर को देखे ३० महीने हो गये थे, जीवन आनन्द में चल रहा था, लिखने के लिये पर्याप्त समय मिल रहा था, एक सप्ताह की दो पोस्टें के लिये और कितना समय चाहिये भला? हम तो फेसबुक को लगभग भूल ही चुके थे, पर फेसबुक रह रहकर हमें कोंचने की तैयारी में था। यद्यपि फेसबुक बन्द करने के समय के आसपास ही पाठकों की संख्या में थोड़ी कमी आयी थी, पर उसका कारण हम गूगल महाराज के बदलशील व्यवहार को देकर स्वयं मानसिक रूप से हल्के हो लिये थे।

सबसे पहले एक मित्र का फोन आया, कहा कि यार अच्छा लिखते थे, बन्द काहे कर दिया? हम सन्न, हम सोचे बैठे थे कि ईमेल के माध्यम से किये सब्सक्रिप्शन में कुछ गड़बड़ हुयी होगी, उन्हें वह सुधारने की सलाह दे बैठे। बाद में पता लगा कि वे फेसबुक से ही हमें पढ़ लेते थे, ईमेल खोलने में आलस्य लगता था उन्हें। कहीं हम उन्हें तकनीक में अनाड़ी न समझ बैठें, इस डर से ईमेल की सलाह पर हामी तो भर गये पर उस पर अमल नहीं किया।

घर गये तो वहाँ पर भी दो परिचित मिले, घूम फिर कर बात अभिरुचियों की आयी। उन्होने कहा कि लेखन अच्छी अभिरुचि है और उसके बाद दो तीन पुरानी पोस्टों पर चर्चा करने लगे। हमारा माथा ठनका, उसके बाद भी बहुत कुछ लिखा था, उसके विषय क्यों नहीं उठाये, मर्यादावश उनकी पसन्द पर ही चर्चा को सीमित रखा। बाद में ज्ञात हुआ कि उन तक भी फीड फेसबुक से ही पहुँचती थी।

कुछ दिन पहले बंगलोर में रहने वाले और मेरे विद्यालय में पढ़े लगभग ४० लोगों का एक मिलन आयोजित किया था अपने घर में। पता लगा कि उसमें से बहुत से लोग ऐसे थे जो ब्लॉगजगत के सक्रिय पाठक थे, लिखते नहीं थे, टिप्पणी भी नहीं करते थे, पर पोस्टें कोई नहीं छोड़ते थे। उनमें से कुछ आकर कहने लगे कि भैया, जब व्यस्तता थोड़ी कम हो जाये तो लेखन पुनः आरम्भ कर दीजियेगा, आपका लिखा कुछ अपना जैसा लगता है। स्नेहिल प्रशंसा में लजा जाना बनता था, सो लजा गये, पर हमें यह हजम नहीं हुआ कि हमने लेखन बन्द कर दिया है। अतिथियों को यह कहना कि वे गलत हैं, यह तुरन्त खायी हुयी खीर के स्वाद को कसैला करने के लिये पर्याप्त था, अतः उन्हें नहीं टोका।

इन तीन घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि पाठकों का एक वर्ग जो विशुद्ध पाठकीय रस के लिये पढ़ता है, पिछले ३ महीनों से हमें पढ़ नहीं पा रहा है। टिप्पणी करने वाले सुधीजन और ब्लॉगों के मालिक अभी भी जुड़े हुये थे, ईमेल या गूगल रीडर के माध्यम से। शेष लोग फेसबुक में प्राप्त लिंक के सहारे पढ़ते थे, हमारे फेसबुक से मुँह मोड़ लेने के कारण वे न चाहते हुये भी हमसे मुँह मोड़ चुके थे। समझ मे तब स्पष्ट आया कि फेसबुक अकेले ही १०० के लगभग पाठक निगल चुका है।

क्या करें तब, अपने आनन्द में बैठे रहना एक उपाय था। चिन्तन के जिस सुलझे हुये स्वरूप में फेसबुक को छोड़ा था, उसे पुनः स्वीकार करने से अहम पर आँच आने का खतरा था। सहेजे समय को बलिदान कर पुनः पहुँच बढ़ाने के लिये गँवा देना हर दृष्टि से अटपटा था। बहुत से ऐसे प्रश्न थे, जिसके निष्कर्ष हानि और लाभ के रूप में ज्ञात तो थे पर किसी एक ओर बैठ जाने की स्पष्टता का आभाव चिन्तन में छाया हुआ था।

निर्णय इसका करना था कि मेरे हठ की शक्ति अधिक है या मुझ पर पाठकों के अधिकार की तीव्रता। निर्णय इसका करना था कि लेखन जो स्वान्तः सुखाय होता था, वह अपना स्वरूप रख पायेगा या पाठकों के अनुरूप विवश हो जायेगा। निर्णय इसका करना था कि पूर्व निर्णयों का मान रखा जाये या अतिरिक्त तथ्य जान कर निर्णय संशोधित किये जायें। निर्णय इसका करना था कि त्यक्त को पुनः अपनाना था या एकान्त में आत्ममुग्धता की वंशी बजाना था।

क्या कोई और तरीका है, ब्लॉग सब तक पहुँचाने का? क्या ब्लॉग के साथ सारी सामाजिकता पुनः ओढ़नी पड़ेगी? प्रश्न किसी विस्तृत आकाश में न ले जाकर पुनः फेसबुक की ओर वापस लिये जा रहा था। जुकरबर्गजी, आप नजरअन्दाज नहीं किये जा सकते हैं, हमारे परिचित और पाठकगण आपके माध्यम से ही मुझे जानना चाहते हैं। आपके बारे में मेरे पूर्व विचार न भी बदलें पर अपनों के सम्पर्क में बने रहने के लिये मुझे आपकी छत में रहने से कोई परहेज नहीं है।

पर इस बार ट्विटर की चूँ चूँ भी साथ में रहेगी हमारे। जब दिखना है तो ढंग से और हर रंग से दिखा जायेगा।

26.5.12

बहें, नदी सा

बहने को तो हवा भी बहती है पर दिखती नहीं, जल का बहना दिखता है। न जाने कितने विचार मन में बहते हैं पर दिखते नहीं, शब्दों का बहना दिखता है। कल्पना हवा की तरह बहती है, इधर उधर उन्मुक्त। लेखन का प्रवाह नदी सा होता है, लिखने में, पढ़ने में, सहेजने में, छोड़ देने में।

चिन्तन की पृष्ठभूमि में एक प्रश्न कई दिनों से घुमड़ रहा है, बहुत दिनों से। कभी वह प्रश्न व्यस्तता की दिनचर्या में छिप जाता है, पर जैसे ही ब्लॉग के भविष्य से संबंधित कोई पोस्ट पढ़ता हूँ, वह प्रश्न पुनः उठ खड़ा होता है। प्रश्न यह, कि ब्लॉग जिस विधा के रूप में उभरा है, उसे प्रवाहमय बनाये रखने के लिये किस प्रकार का वातावरण और प्रयत्न आवश्यक है। प्रश्न की अग्नि जलती रही, संभावित उत्तरों की आहुति पड़ती रही, शमन दूर बना रहा, ज्वाला रह रह भड़कती रही।

ऐसा नहीं है कि ब्लॉग के प्रारूप को समझने में कोई मौलिक कमी रह गयी हो, या उसमें निहित आकर्षण या विकर्षण का नृत्य न देखा हो, या स्वयं को व्यक्त करने और औरों को समझने के मनोविज्ञान के प्रभाव को न जाना हो। बड़ी पुस्तकों को न लिख पाने का अधैर्य, उन्हें न पढ़ पाने की भूख, समय व श्रम का नितान्त आभाव और अनुभवों के विस्तृत वितान ने सहसा हजारों लेखक और पाठक उत्पन्न कर दिये, और माध्यम रहा ब्लॉग। सब अपनी कहने लगे, सब सबकी सुनने लगे, संवाद बढ़ा और प्रवाह स्थापित हो गया। एक पोस्ट में एक या दो विचार न ही समझने में कठिन लगते हैं और न ही लिखने में, उससे अधिक का कौर ब्लॉगीय मनोविज्ञान के अनुसार पचाने योग्य नहीं होता है।

यह सब ज्ञात होने पर वह निष्कर्ष सत्य अनुपस्थित था, जिसे जान सब स्पष्ट दिख जाता। कुछ प्रश्न उत्तर की प्रतीक्षा तो अधिक कराते हैं पर उत्तर सहसा एक थाली में परोस कर दे देते हैं। कल ही जब यह पोस्ट पढ़ रहा था, मन में उत्तरों की घंटी बजने लगी।

लेखन नदी सा होता है और हमारा योगदान एक धारा। नदी बहती है, समुद्र में मिल जाती है, पानी वाष्पित होता है, बादल बन छा जाता है, बरसता है झमाझम, नदी प्रवाहमयी हो जाती है, वही जल न जाने कितनी बार बरसता है, बहता है, एकत्र होता है, वाष्पित होता है, उमड़ता है और फिर से बरसता है। नदी को प्रवाहमय बने रहने के लिये जल सतत चाहिये। जल के स्रोत ज्ञान के ही स्रोत हैं, कहीं तो सकल जगत सागर से वाष्पित अनुभव, कभी पुस्तकों के रूप में जमे हिमाच्छादित पर्वत।

महान पुस्तकें एक भरी पूरी नदी की तरह होती हैं, गति, लय, गहराई, और प्रवाह बनाये रखने के लिये ज्ञान के अक्षय हिमखण्ड। रामचरितमानस, गीता जैसी, सदियों से प्रवाहमयी, विचारों की न जाने कितनी धारायें उसमें समाहित। हम अपनी पोस्टें में एक या दो विचारों के जल की अंजलि ही तो बना पाते हैं, अपने सीमित अनुभव से उतना ही एकत्र कर पाते हैं, वही बहा देते हैं ब्लॉग की नदी में। बहते जल में अपनी अंजलि को बहते देख उसे बहाव का कारण समझ लेना हमारे बालसुलभ उत्साह का कारण अवश्य हो सकता है, हमारी समझ का निष्कर्ष नहीं। धारा का उपकार मानना होगा कि आपका जल औरों तक पहुँच पा रहा है, आपको उपकार मानना होगा कि आप उस धारा के अंग हैं।

एक अंजलि, एक धारा का कोई मोल नहीं, थोड़ी दूर बहेगी थक जायेगी। यह तो औरों का साथ ही है जो आपको प्रवाह होने का अभिमान देता है। मतभेद हों, उछलकूद मचे, पर ठहराव न हो, बहना बना रहे, प्रवाह बना रहे। जैसे वही पानी बार बार आता है, हर वर्ष और अपना योगदान देता है, उसी प्रकार ज्ञान और अनुभव की अभिव्यक्ति का प्रवाह भी एक निश्चय अंतराल में बार बार आयेगा, हम निमित्त बन जायें और कृतज्ञ बने रहें।

पढ़ने और लिखने में भी वही सम्बन्ध है, यदि आप अधिक पढ़ेंगे तो ही अधिक लिख पायेंगे, अच्छा पढ़ेंगे तो अच्छा लिख पायेंगे, स्तरीय पढ़ेंगे तो स्तरीय लिख पायेंगे, प्रवाह का सिद्धान्त यही कहता है। संग्रहण या नियन्त्रण का मोह छोड़ दें, आँख बन्द कर बस प्रवाह में उतराने का आनन्द लें।

जिस प्रवाह में हैं, आनन्द उठायें, बहते जल का। बहें, नदी सा।

23.5.12

पानी का इतिहास

कहते हैं कि पानी का इतिहास सभ्यताओं का इतिहास है, इस बहते पानी ने कितना कुछ देखा होता है, कितना कुछ सहा होता है। यही कारण रहा होगा कि स्वर्गीय भूपेन हजारिका गंगा को समाज में व्याप्त विद्रूपताओं के लिये उलाहना देते हैं, गंगा बहती हो क्यों? नदियाँ हमारे इतिहास की साक्षी हैं, पर इनका भी अपना कोई इतिहास है, यह एक अत्यन्त रोचक विषय है।

इस विषय पर विद्वानों का ध्यान जाना स्वाभाविक है, यदि नहीं गया तो संभव है कि अगले विश्वयुद्ध की आग पानी से ही निकलेगी। मेरी उत्सुकता इस विषय में व्यक्तिगत है। यमुना नदी मेरे गृहनगर से बहती है। जब से यह ज्ञात हुआ है कि वहाँ बहने वाला पानी हिमालय का है ही नहीं, सारा पानी तो दिल्ली में ही पी लिया जाता है, दिल्ली और इटावा के बीच तो इसमें पानी रहता ही नहीं है, तब से यह चिन्ता लगी है कि भविष्य में कहीं यमुना नदी अपना अस्तित्व न खो बैठे। यह भी संभव है कि दिल्ली और इटावा के बीच इसके पाट में मकान या फार्महाउस आदि बन जायें, यदि ऐसा हुआ तो यमुना नदी इतिहास बन जायेगी। आध्यात्मिक जल के आचमन के स्थान पर विशुद्ध चम्बलीय बीहड़ों का पानी शरीर में जायेगा, प्रार्थना के स्वरों में शान्ति के स्थान पर तब जाने कौन से स्वर निकलेंगे?

आगत भविष्य का दोष दिल्ली को भी कैसे दिया जाये, राजधानी जो ठहरी, विशालतम लोकतन्त्र का केन्द्रबिन्दु, नित नयी आशाओं की कर्मस्थली। अधिक कर्म को अधिक पानी भी चाहिये, जहाँ लंदन और पेरिस प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन क्रमशः १६९ और १५५ लीटर पानी उपयोग करते हैं, वहीं दिल्ली में ३०० लीटर की उपलब्धता है। अभी जनसंख्या बढ़ेगी, तब और पानी चाहिये होगा। यह देखकर लगता है कि यमुना का उद्धार अब संभव नहीं है।

पर यमुना के साथ यह पहली बार नहीं होगा कि वह कान्हा के वृन्दावन से होकर नहीं जायेगी। कान्हा के अवतार के पहले भी यमुना वृन्दावन से होकर नहीं बहती थी। पानी का यह सत्यापित इतिहास वैज्ञानिकता के आधार पर ही ज्ञात हुआ है। मानवीय इतिहास शताब्दियों में बदलता है, नदियों के इतिहास सहस्र वर्षों के अन्तराल में स्पष्ट होते हैं।

सरस्वती नदी का विस्तृत विवरण हमारे ग्रन्थों में मिलता है, और यह भी पता लगता है कि कालान्तर में वह नदी विलुप्त हो गयी, कारण अज्ञात। अब छोटी मोटी बावड़ी फाइलों में बन कर खो जायें तो ढूढ़ने में बहुत श्रम लगेगा, इतनी बड़ी नदी का खो जाना आसानी से नहीं पचाया जा सकता है। कहाँ खोयी होगी, ग्रन्थ ही कहते हैं कि वह यमुना और सतलज के बीच में बहती थी, आधुनिक राजस्थान के बीचों बीच। पुरातत्वविदों को उस क्षेत्र में सिन्धु घाटी के ६०० मानवीय निवासों की तुलना में लगभग २००० मानवीय निवास मिले हैं, पर नदी की उपस्थिति का कोई निश्चित सूत्र नहीं मिला।

१९७० में अमेरिका के नासा ने अपने उपग्रहीय चित्रों की सहायता से राजस्थान के थार मरुस्थल में एक लुप्त नदी की उपस्थिति के संकेत दिये थे। उसे दोनों ओर बढ़ाकर देखा गया तो भारत की घग्गर नदी और पाकिस्तान में बहने वाली हाक्रा नदी, सरस्वती नदी के ही अन्तिम छोर हैं, बीच की नदी विलुप्त हो गयी। घग्गर की नदी घाटी एक स्थान पर आकर १०-१२ किमी तक चौड़ी हो जाती है, इससे बस यही अनुमान लगाया जा सकता है कि सरस्वती बहुत ही विशाल नदी रही होगी। तथ्य यह भी बताते हैं कि उस समय सतलज और यमुना दोनों ही सरस्वती में आकर बहती थीं। पृथ्वी की आन्तरिक गतियों के कारण सतलज ने रोपर के पास उल्टा मोड़ लिया और व्यास में मिलती हुयी सिन्धु नदी का अंग बन गयी। वहीं दूसरी ओर यमुना पौन्टा साहब में पूर्व की ओर मुड़ गयी और प्रयाग में आकर गंगा नदी से मिल गयी। दोनों नदियों के दिशा परिवर्तन क्यों हुये, कहना कठिन है, पर यमुना सरस्वती का जल लेकर गंगा से मिलती है इसीलिये प्रयाग की त्रिवेणी में सरस्वती को लुप्त नदी कहा जाता है।

पोखरण परमाणु परीक्षण और उसके बाद का घटनाक्रम सरस्वती के इतिहास को सिद्ध करने में बहुत महत्वपूर्ण रहा है। परीक्षण के बाद जब वैज्ञानिकों ने २५० किमी के क्षेत्र में ८०० कुओं के जल का परीक्षण किया तो उस जल में रेडियोएक्टिव तत्वों की अनुपस्थिति ने परीक्षण की उत्कृष्ट योजना को सिद्ध किया। साथ में जो अन्य निष्कर्ष पाये, वो सरस्वती के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त थे। पानी मीठा था, ८०००-१४००० साल पुराना था और हिमालय के ग्लेशियरों का था। यही नहीं इस नदी घाटी के किनारे पायी गयी मूर्तियों में आदि बद्री में पाये गये पत्थरों के चूरे के अवशेष मिले हैं। उस क्षेत्र में हिमालय का जल व उद्गमस्थल के पत्थरों का चूरा इतनी अधिक मात्रा में पहुँचने का कोई और कारण नहीं था, सिवाय इसके कि सरस्वती वहाँ बहती थी।

इन खोजों ने सरस्वती के पुराने पाट को पुनः उपयोग में लाकर हिमालय का पानी राजस्थान में लाने का आधार दिया है। सतलज और यमुना के पानी को पहले भूमिगत जल भरने में और उसके बाद सरस्वती को पुनः जीवित करने की विशाल योजना है। राजस्थान की धरती सरस्वती के जल से सरसवती हो पायेगी या नहीं, कच्छ का रन अपने श्वेत विस्तृत क्षेत्र पर हिमालय का जल देख पायेगा या नहीं, सरस्वती के सूखने के बाद दोनों ओर पलायन कर गयी जनसंख्या संस्कृति की सततता उत्पन्न कर पायेगी या नहीं, यह प्रश्न भविष्य बतलायेगा। पर इन खोजों ने एक घृणित असत्य को सहसा आवरणहीन कर दिया है।

अपने आक्रमण और भारतीयों पर की निर्दयता को उचित ठहराने के लिये अंग्रेजों में आर्यों के आक्रमण का विस्तृत इतिहास सृजित किया। भारतीय जनमानस में फूट डालने के लिये आर्य-द्रविड जैसे सिद्धान्तों को पल्लवित किया। योजनानुसार भारतीय संस्कृति के प्रत्येक आधार को नीचा दिखाया। आर्य आक्रमण का एकमेव आधार मोहनजोदड़ो का नष्ट होना १८०० ईपू निर्धारित किया गया है, सरस्वती का लुप्त होना ४०००-८००० ईपू की घटना है। जब वेदों में सरस्वती के बहने और सामने ही लुप्त होने का वर्णन है तो जिस समय मोहनजोदड़ों नष्ट हुआ, उस समय आर्य भारत में ही थे, न कि उनके द्वारा बाहर से आक्रमण किया गया।

पानी इतिहास रचता है और इतिहास की रक्षा भी करता है, सरस्वती की खोजों ने जिस इतिहास को पुनर्जीवित किया है वह हम सबके लिये अमूल्य है। अब चाहे यमुना पुनः अपनी धार पूर्ववत कर सरस्वती से जा मिले, राजस्थान को लहलहाने में कान्हा के वृन्दावन और मेरे गृहनगर को भूल जाये, मेरे हृदय में पानी का इतिहास सदा सम्मान पाता रहेगा।

हमारे इतिहास की साक्षी नदियाँ हमारे भविष्य को रचने में भी सक्षम हैं।

19.5.12

सीट बेल्ट और इंच इंच सरकना

बंगलोर में अभी कुछ दिन पहले सीट बेल्ट बाँधना अनिवार्य कर दिया गया है। इस निर्णय ने मुझे कई कोणों से और बहुत गहरे तक प्रभावित किया है।

संरक्षा को प्राथमिकता मिलनी चाहिये, पर आमजन संरक्षा के प्रति जागरूक नहीं होता है, उसे लगता है कि सीट बेल्ट बाँधने और उतारने में इतना समय लग जाता है कि उतनी देर में वह न जाने कितना शहर नाप आयेगा। समय बचा लेने की इस जुगत में वह तब तक सीट बेल्ट नहीं बाँधता, जब तक यह अनिवार्य न कर दिया जाये। अनिवार्य भी तब तक अनिवार्य नहीं समझा जाता, जब तक उस पर कोई आर्थिक दण्ड न हो। यद्यपि आर्थिक दण्ड लगने के बाद ही धनपुत्रों को नियम तोड़ने का विशेष सुख मिलता है क्योंकि तब अन्य लोग नियम नहीं तोड़ पाते हैं और तब धनपुत्र अपने धन के कारण विशेष हो जाते हैं। भले ही कुछ लोग अपने धन से यह सुख खरीदते रहें पर आमजन संरक्षा के प्रति सचेत से प्रतीत होने लगते हैं। धन और शेष को पृथक रखने के नीरक्षीर विवेक से युक्त दूरगामी निर्णय से किस तरह अनुशासित समाज का निर्माण हो सकता है, यह प्रभावित होने का विषय है।

ऐसे निर्णय हर समय नहीं लिये जा सकते हैं क्योंकि हर निर्णय को लागू करने में बहुत श्रम लगता है। बंगलोर में इतनी गाड़ियाँ हैं कि सबके आगे की सवारियों को देखने में ही सारी ऊर्जा लगा दी तो अन्य नियमों का उल्लंघन देखने का समय ही नहीं मिलेगा। जितना अधिक कार्य यहाँ के ट्रैफिक वाले करते हैं, उतनी लगन मैने अभी तक कहीं और नहीं देखी। यहाँ पर इसे मानवीय कार्यों की श्रेणी में रखकर यथासंभव निभाया जाता है, अन्य नगरों में इसे ईश्वरीय प्रकोप या कृपा मानकर छोड़ दिया जाता है। ऐसी श्रमशील फोर्स को और काम करने के लिये मना लेना सच में सुयोग्य प्रशासन के ही संकेत हो सकते हैं और उससे प्रभावित होना स्वाभाविक भी है।

कार्य केवल उल्लंघन करने वालों का नम्बर नोट कर चालान करने तक सीमित होता तब भी समझा जा सकता था। अधिक दण्ड होने पर कार्यालय में दण्ड भरने वालों की संख्या बहुत बढ़ जाती है। उन्हें सम्हाल पाना एक कठिन कार्य है। कुछ ट्रैफिक वाले कार्यालय में बैठे अपने सहकर्मियों की पीड़ा समझते भी हैं और यथासंभव रसीद या बिना रसीद के दण्ड सड़क पर ही भरवा लेते हैं। एक छोटे निर्णय से सबका काम बहुत बढ़ जायेगा, यह तथ्य ज्ञात होते हुये भी यह निर्णय लागू करा लेना मुझ जैसों को प्रभावित कर लेने के लिये पर्याप्त है।

देश का एक विशेष गुण है, जो भी कोई नयी या खरी बात बोलता है, लोग उन्ही शब्दों से बोलने वाले का जीवन तौल डालते हैं। बहुतों के साथ ऐसा हुआ है और यह तथ्य वर्तमान के कई उदाहरणों के माध्यम से सर्वविदित भी है। हुआ वही, जिसका डर था, आदेश लागू होने के दूसरे दिन ही अखबारों में एक चित्र आ गया कि मुख्यमंत्रीजी की गाड़ी में इस नियम का पालन नहीं हो रहा है। यह सब होने पर भी नियम का पालन यथावत चलता रहा, इस बात ने मुझे पर्याप्त प्रभावित किया।

मुझे गाड़ी में आगे ही बैठना अच्छा लगता है, वहाँ से परिवेश पर पूरी दृष्टि बनी रहती है। पीछे की सीट पर बैठकर केवल अपनी ओर के दृश्य दिखते हैं, केवल एक तिहाई। छोटे से जीवन में दो तिहाई दृश्य छूट जायें, इससे बड़ी हानि संभव भी नहीं है। जब यही सोच कर कार निर्माताओं ने आगे की सीट बनायी तो उसका लाभ उठाने में संकोच कर निर्माताओं की आकांक्षाओं को धूलधूसरित क्यों किया जाये। पीछे बैठकर एक ही ओर देखते रहने से और उत्सुकतावश सहसा अधिक मुड़ जाने से गर्दन में पुनः मोच आ जाने का डर भी है। हाँ, जब अधिक दूर जाना हो या रात्रि निरीक्षण में निकलना हो, तो पीछे की सीट लम्बी करके सो जाता हूँ। आगे बैठने से सीट बेल्ट बाँधना आवश्यक हो गया। कुछ बार तो याद रहा, कुछ बार भूलना भी चाहा पर हमारे ड्राइवर साहब ने भूलने नहीं दिया। एक बार जब उकता गये तो पूछा कि क्या बाँधना हर बार आवश्यक है, ड्राइवर साहब ने कहा कि आवश्यक तो नहीं है बशर्ते जेब में १०० रु का नोट सदा रखा जाये, दण्ड भरने के लिये। ड्राइवर साहब के 'न' नहीं कहने के तरीके ने प्रभावित किया मुझे।

जब कोई उपाय नहीं रहा तो नियमित सीट बेल्ट बाँधना प्रारम्भ कर दिया। सीट बेल्ट के लाभ सुरक्षा के अतिरिक्त और भी पता चले। जब सीट बेल्ट नहीं बँधी होती है तो आपका कोई एक हाथ सदा ही सचेत अवस्था में बना रहता है और झटका लगने की स्थिति में सीट या हैंडल पकड़ लेता है। साथ ही साथ आपकी आँखें भी खुली रहती हैं और कार की गति के प्रति सचेत बनी रहती हैं। सीट बेल्ट बाँधने के बाद हमारे हाथ और आँखें, दोनों ही मुक्त हो लिये, आँख बन्द कर चिन्तन करने के लिये और दोनों हाथों से मोबाइल पर टाइपिंग करने के लिये। पहले जो शरीर पहले एक ही अवस्था में बना रहने से थक जाता था, अब ढीला छोड़ देने से थकता नहीं था। यात्राओं में चिन्तन कर सकना, अधिक टाइपिंग होना और कम थकना, यह तीनों कारण मुझे बहुत गहरे प्रभावित कर गये।

सीट बेल्ट का सिद्धान्त उसके उपयोग के अनुसार ही है। आप उसे धीरे धीरे खींचेगे तो वह कितना भी खिंच आयेगा पर झटके से खींचेगे तो तुरन्त अटक जाता है। सीट बेल्ट के उपयोग करने के पहले तक यह सिद्धान्त ज्ञात नहीं था। पहले विश्वास नहीं था पर जब हाथों से खींच कर प्रयोग किया तब विश्वास आया। एक बार जब कार झटके से रोकनी पड़ी तब सीट बेल्ट ने सहसा अपनी जकड़ में भींच लिया। यही सिद्धान्त जीवन में भी लगता है। ध्यान से देखें तो जो सुरक्षा के संकेत होते हैं, वह आपके अधिक गतिमय होने पर ही प्रकट होते हैं, अन्यथा जीवन अपनी मन्थर गति से चलता रहता है। इस सिद्धान्त ने मुझे अन्दर तक प्रभावित किया।

इतना अधिक मात्रा में प्रभावित होकर हम भारी होकर सो गये होते यदि हमारे ड्राइवर महोदय खिन्न से न लग रहे होते। उन्हे सीट बेल्ट बाँधना झंझट सा लग रहा था। पूछने पर बताया कि जब बंगलोर के ट्रैफिक की औसत चाल पैदल से थोड़ी सी ही अधिक है तब सीट बेल्ट बाँधने का क्या लाभ? ट्रैफिक जाम से बचने के लिये कौन सा नियम बनेगा? सीट बेल्ट के साथ इंच इंच सरकने की व्यथा ने प्रभावित करने की हद ही कर डाली।

16.5.12

मेरे फैन भी मुझसे कोई नहीं छीन सकता है

लगभग ४ वर्ष पहले का समय, ग्वालियर स्टेशन परिसर में, नयी ट्रेन के उद्घाटन के अवसर पर जनप्रतिनिधियों के अभिभाषण चल रहे थे, एक मालगाड़ी १०० किमी प्रति घंटे की गति से पास की लाइन से धड़धड़ाती हुयी निकली, लोहे की गड़गड़ाहट के स्वर ने ३० सेकेण्ड के लिये सबको निशब्द कर दिया। बहुतों के लिये तो यह ३० सेकेण्ड का व्यवधान ही था और जब वातावरण उत्सवीय हो तो कोई भी व्यवधान अखरता भी है। तभी परिचालन के एक वरिष्ठ अधिकारी कनखियों से हमारी ओर देखते हैं, हल्के से मुस्कराते हैं। संवाद स्पष्ट था, उनके लिये यह ३० सेकेण्ड आनन्द से भरे थे, हमें भी वही रस मिला था। जो सुख ३००० टन की मालगाड़ी को गतिमान दौड़ते देखने में था, भरे डब्बों और पटरियों के खनक सुनने में था, उस ३० सेकेण्ड के सुख के आगे शब्दों के नीरस निर्झर का कोई मोल नहीं था।

आवश्यक नहीं कि रेलवे के जिस रूप से हम अभिभूत हों, वही औरों को भी अभिभूत करे। हम रेलकर्मचारियों के लिये यह आनन्द कर्तव्य का एक अंग है और आवश्यकता भी। हमारा कर्तव्य है कि गाड़ियाँ अपनी अधिकतम गति से ही चलें। संभवतः कर्तव्य से आच्छादित अभिरुचि के आनन्द की विशालता को नहीं समझ नहीं पाता यदि रेलवे के और दीवानों से नहीं मिलता। यात्राओं में या कहीं अन्य स्थानों पर हुयी भेटों में रेलवे के कई और पहलुओं के बारे में भी पता लगा, लोग जिससे प्रेम किये बैठे हैं, एक सीमा से भी अधिक दीवाने हैं।

किसी को गति भाती है, किसी को उनकी लम्बाई, किसी को यात्रा का सुख, किसी को रेल का इतिहास। कोई हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से लेकर अब तक वर्णित रेलवे के संदर्भों से अभिभूत है तो कोई रेलवे के माध्यम से पूरा देश नापने का उत्सुक है। कभी रेल की पटरियों के किनारे के दृश्य अपने कैमरे में उतारने के लिये रेलवे के दीवाने पैसेन्जर ट्रेनों में घंटों बिता देते हैं, कभी हवाओं के थपेड़ों को अपने चेहरे पर अनुभव करने के लिये दरवाजों से लटके न जाने क्या सोचते रहते हैं। किसी को रेलवे किसी रहस्य से कम नहीं लगता है, किसी को रेलवे के बारे में बतियाने का और अधिकतम तथ्य जानने का नशा है।

बचपन में रेल पटरियों पर दस पैसे का चपटा हो जाना आर्थिक हानि कम, शक्ति का प्रदर्शन अधिक लगता था। गाँवों में जाती हुयी ट्रेन के यात्रियों को हाथ हिला कर बच्चों का उछलना, रेलवे के प्रति उनके प्रेम का प्रथम लक्षण सा दिखता है, यही धीरे धीरे उपरिलिखित अभिरुचियों और गतिविधियों में आकार लेने लगता है।

कई लोगों में उपस्थित इस उन्माद के बारे में तब पता लगा, जब यहाँ पर कई उद्धाटनों में एक समूह को बार बार देखा। नये तरह के कोच आयें या इंजन, किसी ट्रेन की गति के ट्रायल हों या किसी रेललाइन का विद्युतीकरण, रेल से संबन्धित कोई कला प्रदर्शनी हो या रेल परिसर में कोई अन्य आयोजन, उस समूह की उपस्थिति सदा ही बनी रही, उत्साह से परिपूर्ण लोगों का समूह। थोड़ी बातचीत हुयी तो उसमें कोई इन्जीनियर, कोई सॉफ्टवेयर में, कोई विद्यार्थी, बहुतों का रेलवे से कोई पारिवारिक जुड़ाव नहीं। जहाँ तक उनकी अभिरुचि की गहनता का प्रश्न है तो तकनीक, वाणिज्य से लेकर परिचालन और इतिहास के बारे में पूरी सिद्धहस्तता। लगा कि उनके जीवन के हर तीसरे विचार में रेलवे बसी है।

उत्साह संक्रमक होता है। निश्चय ही आप जिस संगठन के माध्यम से अपनी जीविका चला रहे हैं, उसके प्रति आपकी निष्ठा अधिक होती है और समय के साथ बढ़ती भी रहती है, यह स्वाभाविक भी है, पर रेलवे से पूर्णता असंबद्ध समूह का रेलवे से अप्रतिम जुड़ाव देखकर मन आनन्द और गर्व से प्लावित हो गया।

इंडियन रेलवे फैन क्लब नामक यह समूह अपनी गतिविधियों को इण्टरनेट पर सहेज कर अपने उत्साह को सतत बनाये रहता है। कई और भेटों के पश्चात जब इस साइट पर जाना हुआ तो वहाँ पर उपस्थित सामग्री देखकर आँखे खुली की खुली रह गयीं। सैकड़ों चित्र, यात्रा वृत्तान्त, तकनीकी तथ्य और इतिहास के जो क्षण वहाँ दिखे, वो बिना विशेष अध्ययन के संभव भी नहीं थे। यही नहीं, ये दीवाने हर वर्ष इण्टरनेट के बाहर भौतिक रूप से भी मिलते हैं, विषय विशेष पर चर्चा करते हैं, रेलवे के प्रति अपनी अगाध निष्ठा को अभिव्यक्त करते हैं।

हम सबको कभी न कभी रेलवे ने चमत्कृत किया है, न जाने कितने युगलों को जानता हूँ, जिनके वैवाहिक जीवन की नींव रेलयात्राओं में ही पड़ीं। छुक छुक करते हुये खिलौनों से खेलना हो या रेलगाड़ी में बैठ अपने दादा-दादी या नाना-नानी से मिलने जाना हो, सबके मन में रेल कहीं न कहीं घर बनाये हुये है। आपके मन में वह विस्मृत विचार पुनः अँगड़ाई लेना चाहे तो आप इन दीवानों से जुड़ भी सकते हैं। जहाँ एक ओर आपकी अपेक्षाओं के ताल को भरने में रेल कर्मचारी अपने श्रम से योगदान दे ही रहे हैं, वहीं दूसरी ओर आपका हृदयस्थ जुड़ाव ही रेलवे की ऊर्जा को स्रोत भी है।

यह देख रेलवे भी निश्चय ही यही कह उठेगी कि मेरे फैन भी मुझसे कोई नहीं छीन सकता है।

12.5.12

आधारभूत गर्त

जुआ खेलने वाले जानते हैं कि दाँव इतना लगाना चाहिये कि एक बार हारने पर अधिक कष्ट न हो, और दाँव इतनी बार ही लगाना चाहिये कि अन्त में जीने के लिये कुछ बचा रहे। वैसे तो लोग कहते हैं कि जुआ खेलना ही नहीं चाहिये, सहमत हूँ और खेलता भी नहीं हूँ, पर जीवन में इससे बचना संभव नहीं होता है। वृहद परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो ऐसे निर्णय जिनका निष्कर्ष नहीं ज्ञात होता है, एक प्रकार से जुये की श्रेणी में ही आते हैं। ताश आदि के खेलों में अनिश्चितता अधिक होती है, इसीलिये जुआ अधिक बदनाम है, इसे खेलना टाला भी जा सकता है। जीवन के निर्णयों में अनिश्चितता कम होती है, ये आवश्यक होते हैं, लम्बित तो किये जा सकते हैं पर पूरी तरह से टाले नहीं जा सकते हैं।

शेयर खरीदने वाले जानते हैं कि उन कम्पनी के शेयरों पर पैसा लगाना अच्छा है जिनका नाम है, जिनके भविष्य में कुछ निश्चितता है, जिनका प्रबन्धतन्त्र सुदृढ़ हाथों में है। यह विकास का अंग अवश्य है पर उसमें उपस्थित अनिश्चितता इसे भी जुये की श्रेणी में ले आती है। मैं शेयर भी नहीं खरीदता हूँ यद्यपि कई लोग उकसाते रहते हैं, उनके अनुसार हम अपनी बुद्धि और ज्ञान का सही उपयोग नहीं कर रहे हैं क्योंकि बुद्धि और बल का उपयोग धनार्जन में नहीं किया गया तो जीवन व्यर्थ हो गया। यथासंभव इन सबसे बचने के प्रयास के कारण कई बार भीरु और मूढ़ होने के सम्बोधन भी झेल चुका हूँ।

कई लोग हैं मेरे जैसे ही, जो इस अनावश्यक और अनिश्चित के दुहरे पाश से यथासंभव बचे रहना चाहते हैं। बचा भी रहा जा सकता है यदि तन्त्र ठीक चलें, अपने नियत प्रारूप में, व्यवस्थित। बहुत से ऐसे तन्त्र हैं जो अच्छे से चल भी रहे हैं और उन क्षेत्रों में हमारा जीवन स्थिर भी है, यदि स्पष्ट न दिखते हों तो पड़ोसी देशों को निहारा जा सकता है। कई क्षेत्र पर ऐसे हैं जिन्होंने एक पीढ़ी में ही इतना पतन देख लिया है, जो हमारे विश्वास को हिलाने के लिये पर्याप्त है, निश्चित से अनिश्चित तक की पूरी यात्रा। अनिश्चित और अनावश्यक अन्तर्बद्ध हैं, बहुत अन्दर तक, एक दूसरे को सहारा देते रहते हैं और निर्माण करते रहते हैं, एक आधारभूत गर्त।

बहुत क्षेत्र हैं जिसमें बहुत कुछ कहा जा सकता है, पर विषय की एक निश्चयात्मक समझ के लिये बिजली और पानी की स्थिति ले लेते हैं, सबसे जुड़ा और सबका भोगा विषय, हर बार घर की यात्रा में ताजा हो जाता विषय, अपने बचपन से तुलना किया जा सकने वाला विषय, एक पीढ़ी के अन्तर पर खड़ा विषय।

बचपन की स्थिति स्पष्ट याद है। दिन में तीन बार पानी आता था, कुल मिलाकर ६ घंटे, कहते थे उसी समय पंपहाउस का पंप चलता था। साथ ही साथ बिजली भी रहती थी, लगभग १८ घंटे, बिजली कटने के घंटे नियत, कहते थे कि बचे हुये ६ घंटे उद्योगों और खेतों को बिजली दी जाती थी। सुविधा तब जितनी भी थी, निश्चितता थी। यदा कदा यदि किसी कारण से बिजली और पानी नहीं आता था, तो उसका कारण ज्ञात रहता था, साथ ही साथ कब तक स्थिति सामान्य हो जायेगी, यह भी ज्ञात रहता था। पानी नहीं आने पर नदी में नहाने जाते थे और बिजली नहीं आने पर हाथ से पंखा झल लेते थे।

स्थितियाँ बिगड़ी, अनिश्चितता बढ़ी। सबसे पहले वोल्टेज कम होना प्रारम्भ हुआ, अब सब क्या करें? जो सक्षम थे उन्होंने अपने घर में स्टेबलाइज़र लगाना प्रारम्भ किया, जो कभी अनावश्यक समझा जाता था, आवश्यक हो गया। धीरे धीरे बिजली अधिक समय के लिये गायब रहने लगी, उस अन्तराल को भरने के लिये लोगों ने इन्वर्टर ले लिये, धीरे धीरे वह हर घरों में जम गया। जब इन्वर्टर को भी पूरी चार्जिंग का समय नहीं मिला, तो छोटे जेनसेट हर घरों में आ गये। घनाड्य तो बड़े जेनेरेटर लगा कर एसी में रहने का आनन्द उठाते रहे।

पानी जहाँ बिजली पैदा करता है वहीं बिजली से पंप भी किया जाता है। बिजली की अनिश्चितता ने पानी को भी पानी पानी कर दिया। जब लोगों का विश्वास सार्वजनिक सेवाओं से हट गया तो घरों में बोरिंग हुयी, पंप लगे और बड़ी बड़ी टंकियाँ बनायी गयीं।

जहाँ एक ओर तन्त्र अनिश्चित हो रहा था, अनावश्यक यन्त्र आवश्यक हो रहे थे, हमारी सुविधाभोगी जीवनशैली और साधन जुटाने में लगी थी। फ्रिज, वाशिंग मशीन, कूलर, ओवेन, एसी आदि हमारे जीवन में छोटे छोटे स्वप्नों के रूप में जम रहे थे। विश्वास ही नहीं होता है कि तीस वर्ष पहले तक बिना इन यन्त्रों के भी घर का बिजली पानी चल रहा था। सीमित बिजली पानी बड़े नगर सोख ले रहे हैं, इस आधारभूत गर्त में छोटे नगरों का जीवन कठिन हुआ जा रहा है, सारा समय इन्हीं आधारभूत समस्याओं से लड़ने में निकल जाता है।

हम सबने सुविधाओं के नाम पर विकास के जुये में इतना बड़ा दाँव लगा दिया कि हार का कष्ट असहनीय हुआ जा रहा है, इतनी बार दाँव लगाया है कि जीने के लिये कुछ बचा भी नहीं। पुरानी स्थिति में भी नहीं लौटा जा सकता है क्योंकि सुविधाओं ने उस लायक नहीं छोड़ा है कि पुरानी जीवनशैली को पुनः अपनाया जा सके। इस आधारभूत गर्त में एक हारे हुये मूर्ख जुआरी का जीवन जी रहे हैं हम सब।

9.5.12

हैं अशेष इच्छायें मन में

मैने मन की हर इच्छा को माना और स्वीकार किया,
जितना संभव हो पाया था, अनुभव से आकार दिया,
ऊर्जा के संचय संदोहित, प्यासे मन की ज्वाला में,
मानो जीवन नाच रहा हो, झूम समय की हाला में,
हर क्षण को आकण्ठ जिया है, नहीं कहीं कुछ छोड़ सका,
भर डाला जो भर सकता था, मन को मन से तृप्त रखा,
सारा हल्कापन जी डाला, नहीं ठोस उस व्यर्थ व्यसन में,
हैं अशेष इच्छायें मन में।१।

देखो तो चलचित्र जगत का तरह तरह के रंग दिखाता,
सबकी चाह एक जैसी ही, सबको सबके संग दिखाता,
सबको अर्थ वही पाने हैं, प्रश्न पृथक क्यों पूछें हम,
न चाहें, फिर भी भरते घट, कहाँ रह सके छूछे हम,
मीन बने हम विषय ताल में, कितना जल पी डाला है,
जीवन को उतराते पाया, जब से होश सम्हाला है,
हम, तुम, सब मदमस्त नशे में, किसने घोली चरस पवन में,
हैं अशेष इच्छायें मन में।२।

जब भी पीड़ाओं से भागा, राहों में कुछ और खड़ीं,
छोटी को झाँसा दे निकला, भाग्य लिखी थी और बड़ी,
आगत का भय, विगत वेदना, व्यर्थ अवधि क्यों खीचें हम,
दृश्य बदे जो, सब दिखने हैं, आँख रहे क्यों मींचे हम,
जैसा भी है, अपना ही है, उस अनुभव से क्यों च्युत हों,
जब आयेगीं, सह डालेंगे, दुगने मन से प्रस्तुत हों,
सह सह सब रहना सीखा है, दिखता अब सौन्दर्य तपन में,
हैं अशेष इच्छायें मन में।३।

5.5.12

बिग बैंग के प्रश्न

कहते हैं कि उत्तर प्रश्न से उत्पन्न होते हैं, यदि प्रश्न न हों तो उत्तर किसके? किन्तु जब उत्तर ही प्रश्न उत्पन्न करने लगें तो मान लीजिये कि विषय में गजब की ऊँचाई है, गजब की ढलान है, ऐसी ढलान जिसके एक टिके टिकाये उत्तर को हटाने से प्रश्नों का लुढ़कना प्रारम्भ हो जाता है, वह भी अनियन्त्रित, किसी पहाड़ के बड़े बड़े पत्थरों की तरह, भरभरा कर। अनुभवी लोग ऐसे विषयों और उत्तरों को छूते ही नहीं, उसके चारों ओर से घूमकर निकल जाते हैं। हमारा अनुभव इतना परिपक्व नहीं हुआ था कि यह पेंच हम समझ पाते। एक उत्तर देने पर प्रश्नों की ऐसी झमाझम बारिश हो जायेगी, यह देखना शेष था अभी।

बिग बैंग के ठहाके लगाने के बाद, अब बारी थी उसके अर्थ को समझाने की। पूछने वाले पृथु थे जो थोड़ी देर पहले तक उन्हीं ठहाकों में आकण्ठ डूबे थे। प्रश्न बड़ा सरल था कि यह 'बिग बैंग थ्योरी' क्या है?

पहले तो सोचा कि प्रचलित परिभाषायें देकर निकल लिया जाये कि सारा ब्रह्माण्ड पहले एक छोटे से बिन्दु में सिकुड़ा था। वह किसी बम के विस्फोट की तरह फटा और चारों ओर फैलने लगा और अब तक फैलता जा रहा है, विस्फोट के छोटे छोटे टुकड़े भिन्न भिन्न आकाशगंगाओं, तारों और अन्ततः ग्रहों में बट गये। अरबों वर्ष निकल गये, रासायनिक प्रक्रियायें हुयीं, जीवन की उत्पत्ति हुयी, मानव बना, बुद्धि विकसित हुयी, इतनी कि अपनी उत्पत्ति के बारे में सोच सके। जीवन उत्पत्ति का यह घटनाक्रम विज्ञान का एक संस्करण है पर एक असिद्ध कहानी सा। विज्ञान का इस कहानी में विश्वास या अविश्वास उतना ही वैकल्पिक और काल्पनिक है जितना विभिन्न धर्मों द्वारा प्रस्तुत ईश्वर की अवधारणा में।

श्रेयस्कर यह लगा कि पृथु को केवल वह तथ्य बताये जायें जिनके आधार पर वैज्ञानिक बिग बैंग की अवधारणा पर पहुँचे होंगे, साथ में यह भी बताया जाये कि इस सिद्धान्त में कौन से प्रश्न अब तक अनुत्तरित हैं। बिग बैंग के क्षण से जीवन उत्पत्ति की अब तक यात्रा कैसी रही होगी, यह आने वाले समय और मस्तिष्कों के लिये छोड़ दिया जाये, जब भी वे इसके उत्तर ढूढ़ पायें।

शक्तिशाली दूरबीनों से किये गये आकाशीय अवलोकन में यह पाया गया कि जो तारे आपसे जितना अधिक दूर हैं, उनकी गति आपकी तुलना में उतनी ही अधिक है। किन्ही भी दो तारों के बीच की दूरी बढ़ती ही जा रही है, अर्थ यह कि विश्व फैल रहा है। इस स्थिति से जब समय की उल्टी दिशा में चला जाये तो हम एक ऐसे स्थान पर पहुँचेंगे जब ब्रह्माण्ड एक बिन्दु पर केन्द्रित था। इस बिन्दु पर सबकी गति शून्य थी, समय की भी, इस क्षण को ही बिग बैंग के नाम से जाना गया।

प्रश्न यह कि ब्रह्माण्ड एक बिन्दु में समाया कैसे होगा, ठोस द्रव्य में यह संभव ही नहीं है। अथाह ऊर्जा और उच्चतम तापमानों का संयोग ही ऐसी स्थिति उत्पन्न कर सकता है, ऊर्जा जो प्रस्फुटित हुयी, फैलती गयी, धीरे धीरे ठंडी होती ग्रहों में बदलती गयी। इस प्रारम्भिक विशिष्ट स्थिति को परिभाषित करना विज्ञान के लिये एक चुनौती है। यह कार्य कठिन अवश्य है पर इसे समझने के तीन संकेत इस सदी के तीक्ष्णतम मस्तिष्कों ने ही सुलझाये हैं।

पहला संकेत है, ऊर्जा और द्रव्य का पारस्परिक संबंध, किस तरह ऊर्जा द्रव्य में और द्रव्य ऊर्जा में बदलता है, परमाणु बम में उत्पन्न ऊर्जा इस संबंध को सिद्ध भी करती है। दूसरा संकेत है, ब्लैक होल की उपस्थिति, इनमें इतना गुरुत्वाकर्षण होता है कि वह किसी को भी निगल जाते है, प्रकाश को भी, सदा के लिये। किसी वस्तु से प्रकाश न निकल पाने की स्थिति में वह काला ही दिखेगा, यही उनके नामकरण का कारण भी है। यह इतने घने होते हैं कि सुई की नोंक के बराबर ब्लैकहोल का भार चन्द्रमा के भार के बराबर होता है। तीसरा संकेत है, समय का सिकुड़ना और फैलना, समय की सापेक्षता का सिद्धान्त। यदि आपकी गति प्रकाश की गति के समकक्ष है तो आपका एक वर्ष कम गति से चलने वाले के कई वर्षों के बराबर हो सकता है, अर्थात कम गति से चलने वाला अधिक गति से बूढ़ा होगा।

यदि उपर्युक्त अवलोकनों को एक साथ रख कर देखा जाये तो बिगबैंग की स्थिति संभव लगती है। उस स्थिति का कोई गणितीय आकार न बन पाने का कारण है, सूत्रों का शून्य से विभाजित हो जाना, सब अनन्त हो जाता है तब। जैसे ही विज्ञान अनन्त को परिभाषित कर लेगा, बिग बैंग के सारे प्रश्न स्वतः ही सुलझ जायेंगे। कुछ तो कहते हैं कि ब्लैकहोलों की उपस्थिति इस फैलते विश्व को पुनः सिकोड़ देंगीं, एक बिन्दु में, जो अगले बिग बैंग के लिये फिर से तैयार हो जायेगा, अनन्त का अनन्त चक्र।

आप विश्वास माने न माने, पर विश्व और समय के सिकुड़ने और फैलने की रोचकता इतनी अधिक है कि पृथु सब मुँह बाये सुनते रहे, समय की विमा और समय में घूमने के आनन्द की कल्पना अद्भुत है। उनके चेहरे की संतुष्टि देख कर लगा कि इस विषय में हमारी रुचि और श्रम यूँ ही व्यर्थ नहीं गया।

यहाँ तक तो सब ठीक था, जो आता था वह बता भी दिया। अगले प्रश्न के लिये पर मैं भी तैयार नहीं था, क्योंकि इस प्रश्न पर अभी तक निष्कर्ष तो कम, शब्दों की तलवारें अधिक निकली हैं। आप ही जो बतायेंगे, हम वही पृथु को बता देंगे। पर याद रहे, इसका उत्तर उन सब पत्थरों को भरभरा कर गिरा सकता है, जो अभी तक आप और हम बनाते आये हैं, सदियों से।

पृथु पूछते हैं कि बिग बैंग किसने कराया, ईश्वर ने या विज्ञान ने?

2.5.12

बिग बैंग के ठहाके

एक मित्र ने अंग्रेजी का एक धारावाहिक सुझाया था, 'द बिग बैंग थ्योरी'। शीर्षक आधुनिक विज्ञान से संबंधित है पर विषय वस्तु एक विशुद्ध हास्य है। एक कड़ी देखकर ही मन बना लिया था कि जब भी समय मिलेगा, उसे पूरा देखा जायेगा। मित्र ने ही अभी तक के सारे सत्रों की एक सीडी भी दे दी थी, १२७ कड़ियाँ, लगभग ४० घंटे का मनोरंजन, बिना किसी विज्ञापन के।

रेलयात्रा में वह अवसर मिल गया, औरों को विघ्न न हो अतः ईयरफोन लगा कर देखने लगा। मशीन की आवाज तो नियन्त्रित कर सकता था पर जब स्वयं को ही ठहाका मारने का मन हो तब कौन सा साइलेंसर लगाया जाता। कई बार आस पास के यात्रियों को कौतूहलवश अपनी ओर ताकते देखा तो अपने उद्गारों को यथासंभव नियन्त्रित करने लगा। रेलयात्रा के बाद वही ठहाकायुक्त व्यवहार घर में भी चलता रहा, यह देख माँ पिता को अटपटा तो लगा पर देखा कि लड़का प्रसन्न है तो वह भी मन्द मन्द मुस्कराते रहे।

घर में एक व्यक्ति ठहाका मारे तो उसे अपवाद मान कर छोड़ा जा सकता था, पर दूसरे ठहाकों की आवाज ने हमें भी अचम्भे में डाल दिया। प्रतिद्वंदी कहाँ से आ टपका, जाकर दूसरे कमरे में देखा तो पुत्र महोदय पृथु भी वही धारावाहिक देख रहे थे, दूसरे लैपटॉप पर। रेलयात्रा में हमारे ठहाकों ने उनकी उत्सुकता बढ़ा दी थी, समय पाकर उन्होने अपने लैपटॉप पर उसे कॉपी कर लिया और बिना किसी से सलाह लिये और अपने वीडियो गेम छोड़कर उसी में व्यस्त हो लिये। पृथु के ठहाकों में मुझे अपने ठहाके कुछ कुछ उपस्थित लग रहे थे, पता नहीं गुणसूत्रों में थे या पिछले तीन दिन में सीखे थे। सबको अपना स्वभाव और व्यवहार बड़ा ही सामान्य और प्राकृतिक लगता है पर जब वही व्यवहार आपकी सन्ततियों में भी आ जाये तब कहीं जाकर उसके गुण दोष पता चलते हैं।

सभ्य समाज में बिना किसी पूर्वसूचना के प्रसन्नता के उद्गार ठहाके के रूप में व्यक्त करना भले ही असभ्यता की श्रेणी में आता हो, पर न तो कभी हमारे माँ पिता को मेरे ठहाकों पर आपत्ति रही और न ही कभी हम पृथु को इसके लिये कोई सलाह देंगे। सुना है भावों को व्यक्त होने से दबाने में शरीर और मन का अहित हो जाता है। यह अहित न होने पाये, इसके लिये हम अपने मित्रों की 'रावण के अट्टाहस' जैसी टिप्पणियाँ भी स्वीकार कर चुके हैं। विद्यालय में एक बार ठहाकों की आवाज हमारे प्रधानाध्यापक को हमारी कक्षा तक खींच लायी थी। प्रशिक्षण के समय इन्हीं ठहाकों ने भोजनालय में कुछ महिला प्रशिक्षुओं को सहसा भयभीत कर दिया था, शालीनतावश क्षमा माँगने पर उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यही लड़का इतनी उन्मुक्तता से ठहाका मार रहा था।

अब, न तो इतना उत्साह रहा है और न ही कोई ठोस कारण दिखता है कि इन ठहाकों पर कोई नियन्त्रण रखा जाये। यदि कोई हास्य व्यंग का दृश्य देखता हूँ तो स्वयं को रोक नहीं पाता हूँ। इस धारावाहिक की विषयवस्तु है ही कुछ ऐसी।

चार मित्र हैं, चारों वैज्ञानिक, उनकी बातें और चुहुलबाजी उसी स्तर पर रहती हैं। उनकी आदतें और यहाँ तक कि उनका भोजन भी सप्ताह के दिनों के अनुसार निश्चित हैं। मुख्य नायक शेल्डन की सनक भरी आदतें उसके मित्रों के लिये कठिनाई उत्पन्न कर देती हैं, पर उनकी मित्रता इतनी गहरी है कि वे सब सह लेते हैं। शेल्डन को न बात छिपाना आता है और न बात बनाना, उसका चीजों को सीधे से कह देना बहुधा सबको हास्यास्पद स्थिति में डाल देता है। उनके घर के सामने पेनी नाम की एक लड़की रहने आती है, वह औसत बुद्धि वाली व्यावहारिक लड़की है और एक होटल में सहायिका का कार्य करती है। पेनी, शेल्डन और उसके मित्रों को एक दूसरे के विश्व अचम्भित और आकर्षित करते हैं।

वैसे तो हिन्दी के हास्य धारावाहिकों में भी आनन्द आता है पर इस धारावाहिक में इतना आनन्द आता है कि ठहाका मारने का मन करता है। पात्रों के अभिनय व एक एक संवाद पर किया श्रम इस धारावाहिक की गुणवत्ता व संबद्ध लोकप्रियता से परिलक्षित है, इसे मिले पुरस्कार भी यही बात सिद्ध करते हैं। अंग्रेजी ऐसी है कि समझ में आती है, तभी हमारे पुत्र भी ठहाका मार रहे थे। यदि कठिनता हो तो इसे उपशीर्षकों के साथ भी देखा जा सकता है।

इस धारावाहिक में निहित हास्य इसे जितना रोचक बनाता है, उससे भी अधिक रोचक है 'बिग बैंग थ्योरी'। उस पर ध्यान नहीं जाता यदि पृथु शेल्डन से प्रभावित हो उस विषय के पीछे न पड़ जाते। इस धारावाहिक को देखने में पृथु के ठहाके उतने ही प्राकृतिक थे जितने गम्भीर इस सिद्धान्त के बारे में उसके प्रश्न।

चलिये, इस बार ठहाकों का आनन्द लीजिये, प्रश्न अगली बार।