29.6.11

सृजन कठिनतम

आज के परिवेश में जब विश्व सिकुड़ कर सपाट होता जा रहा है, विभिन्न क्षेत्र दूसरे क्षेत्रों को अपने अनुभव से लाभान्वित करने को उत्सुक हैं, पुष्ट सिद्धान्तों का प्रयोग निर्बाध रूप से सकल विश्व को ढाँक रहा है, नित नयी ज्ञान संरचनायें उभर कर स्थापित हो रही हैं, विचारों का प्रसार सीमाओं का आधिपत्य नकार चुका है, इस स्थिति में सृजन कठिनतम होता जा रहा है।

जब सुधीजनों के ज्ञान का स्तर बहुत अधिक हो तो सृजन भी बड़ा आहार चाहता है। उसके लिये यह बहुत ही आवश्यक है कि कई विषयों का ज्ञान हो सृजनात्मकता के लिये। इतिहास साक्षी है, जितने भी बड़े सृजनकर्ता हुये हैं, किसी भी क्षेत्र में, उनके ज्ञान का विस्तार हर क्षेत्रों में पाया गया है। सृजन की यह विशालता उसे कठिन बना देती है।

जो साधारण जीवन नहीं जीना चाहते हैं, उन्हें सृजन बड़ा प्रिय होता है। जिन्हें जीवन को समय की तरह बिताना अरुचिकर लगता है, उन्हें सृजन बड़ा प्रिय होता है। जो बनी बनायी राहों से हटकर कोई नया मार्ग ढूढ़ना चाहते हैं, उन्हें सृजन बड़ा प्रिय होता है। ऐसा क्या है उस सृजनशीलता में जो हमारे सर चढ़कर बोलने लगता है और हम सुविधाजनक जीवनशैली छोड़कर उन क्षेत्रों में उतरना चाहते हैं जहाँ अभी तक कोई पहुँच नहीं पाया है।

सृजन हार न मानने का नाम है। वर्तमान को स्थायी न मान अपने पुरुषार्थ के सहारे उस वर्तमान को प्रवाह दे देना सृजन है। किसी कार्य की इति ही उस पर होने वाले सृजन का आरम्भ होती हैगतिशीलता का सारथी बन सृजन कभी विश्व को स्थिर नहीं बैठने देता है

अब देखिये न, बहुधा ऐसा होता है कि हम जिन विषयों पर लिखने का विचार करते हैं, उस पर न जाने कितना साहित्य लिखा जा चुका होगा। फिर भी हमको लगता है कि कहीं न कहीं कुछ छूटा हुआ है। हम उस रिक्तता को भरने का प्रयास करते हैं सृजन से। समग्रता और एकाग्रता, ये दो गुणवत्ता के प्रखर मानक हैं। जब हमारी सृजन-दिशा समग्रता को ध्यान में रख कर होती है तब हमारे सृजन-प्रयास उस समग्रता को और भी गूढ़ बना देते हैं। एकाग्र मनन ही सृजन-प्रक्रिया को निखारता है और अन्ततः समग्रता को पोषित करता है।

कभी कभी आश्चर्य होने लगता है कि इन सृजनशील विचारों का स्रोत क्या है? जिस स्तर पर हम जीवन जीते हैं, सृजन उसके कहीं ऊपर के स्तरों पर निर्माणाधीन रहता है। आपको कभी कभी विश्वास ही नहीं होता है कि यह विचार आपके मन से उत्पन्न हुआ है। यह सोच कर बैठें कि आज सृजन करना है तो रात निराशा भरी होती है। बस अपने ज्ञानकोषों को ढीला और खुला छोड़ ध्यान की अवस्था में बैठ जायें, न जाने कौन देवदूत अपना कोष उसमें लुटा जायेगा।

सृजन निश्चय ही आपके परिवेश को या कहें तो सकल विश्व को एक नवीनता प्रदान करता है। परिवर्तन मानव मन को सुहाता है, सृजन उस परिवर्तन का कारक बनता है। सृजन हमारी मानसिक क्षुधा का नेवाला है, यदि सृजन नहीं रहेगा तो सब नीरस हो जायेगा। सृजन हमारी सुख उपासना को और भी रुचिकर बना देता है।

विश्व के कठिनतम मार्ग में प्रशस्त सृजन के समस्त अग्रदूतों को मेरा नमन।

25.6.11

दो प्रश्न

भविष्य में क्या बनना है, इस विषय में हर एक के मन में कोई न कोई विचार होता है। बचपन में वह चित्र अस्थिर और स्थूल होता है, जो भी प्रभावित कर ले गया, वैसा ही बनने का ठान लेता है बाल मन। अवस्था बढ़ने से भटकाव भी कम होता है, जीवन में पाये अनुभव के साथ धीरे धीरे उसका स्वरूप और दृढ़ होता जाता है, उसका स्वरूप और परिवर्धित होता जाता है। एक समय के बाद बहुत लोग इस बारे में विचार करना बन्द कर देते हैं और जीवन में जो भी मिलता है, उसे अनमने या शान्त मन से स्वीकार कर लेते हैं। धुँधला सा उद्भव हुआ भविष्य-चिन्तन का यह विचार सहज ही शरीर ढलते ढलते अस्त हो जाता है।

कौन सा यह समय है जब यह विचार अपने चरम पर होता है? कहना कठिन है पर उत्साह से यह पल्लवित होता रहता है। उत्साह भी बड़ा अनूठा व्यक्तित्व है, जब तक इच्छित वस्तु नहीं है तब तक ऊर्जा के उत्कर्ष पर नाचता है पर जैसे ही वह वस्तु मिल जाती है, साँप जैसा किसी बिल में विलीन हो जाता है। उत्साह का स्तर बनाये रखने के लिये ध्येय ऐसा चुनना पड़ेगा जो यदि जीवनपर्यन्त नहीं तो कम से कम कुछ दशक तो साथ रहे।

पता नहीं पर कई आगन्तुकों का चेहरा ही देखकर उनके बारे में जो विचार बन जाता है, बहुधा सच ही रहता है। उत्साह चेहरे पर टपकता है, रहा सहा बातों में दिख जाता है। जीवन को यथारूप स्वीकार कर चुके व्यक्तित्वों से बातचीत का आनन्द न्यूनतम हो जाता है, अब या तो उनका उपदेश आपकी ओर बहेगा या आपका उत्साह उनके चिकने घड़े पर पड़ेगा।

मुझे बच्चों से बतियाने में आनन्द आता है, समकक्षों से बात करना अच्छा लगता है, बड़ों से सदा कुछ सीखने की लालसा रहती है। पर युवाओं से बात करना जब भी प्रारम्भ करता हूँ, मुझे प्रश्न पूछने की व्यग्रता होने लगती है। अपने प्रत्येक प्रश्न से उनका व्यक्तित्व नापने का प्रयास करता हूँ। युवाओं को भी प्रश्नों के उत्तर देना खलता नहीं है क्योंकि वही प्रश्नोत्तरी संभवतः उनके मन में भी चलती रहती है। आगत भविष्य के बारे में निर्णय लेने का वही सर्वाधिक उपयुक्त समय होता है।

मुझे दो ही प्रश्न पूछने होते हैं, पहला कि आप जीवन में क्या बनना चाहते हैं, दूसरा कि ऐसा क्यों? दोनों प्रश्न एक साथ सुनकर युवा सम्भल जाते हैं और सोच समझकर उत्तर देना प्रारम्भ करते हैं। उत्तर कई और प्रश्नों को जन्म दे जाता है, जीवन के बारे में प्रश्नों का क्रम, जीवन को पूरा खोल कर रख देता है। चिन्तनशील युवाओं से इन दो प्रश्नों के आधार पर बड़ी सार्थक चर्चायें हुयी हैं। व्यक्तित्व की गहराई जानने के लिये यही दो प्रश्न पर्याप्त मानता हूँ। वह प्रभावित युवा होगा या प्रभावशाली युवा होगा, इस बारे में बहुत कुछ सही सही ज्ञात हो जाता है।

जब तक इन दो प्रश्नों को उत्तर देने की ललक मन में बनी रहती है, उत्साह अपने चरम पर रहता है।

आप स्वयं से यह प्रश्न पूछना प्रारम्भ करें, आपको थकने में कितना समय लगता है, यह आपके शेष मानसिक-जीवन के बारे में आपको बता देगा। यदि प्रश्नों की ललकार आपको उद्वेलित करती है तो मान लीजिये कि आपका सूर्य अपने चरम पर है।

मैं नित स्वयं से यही दो प्रश्न पूछता हूँ, मेरा उत्तर नित ही कुछ न कुछ गुणवत्ता जोड़ लेता है, जीवन सरल होने लगता है पर उत्तर थकता नहीं है, वह आगे भी न थके अतः जीवन कुछ व्यर्थ का भार छोड़ देना चाहता है। एक दिन उसे शून्य सा हल्का होकर अनन्त आकाश में अपना बसेरा ढूढ़ लेना है।

आप भी वही दो प्रश्न स्वयं से पूछिये। 

22.6.11

कार्य की बस चाह मेरी

कार्य की बस चाह मेरी, राह मिल जाया करें,
देख लेंगे, कष्ट दुष्कर, आयें तो आया करें।

व्यक्त है, साक्षी समय है, मन कभी डरता नहीं,
दहकता अस्तित्व-अंकुरहृदय में मरता नहीं।

कब कहा मैंने समय से, तनिक तुम अनुकूल हो,
सब सहा जो भी मिला पथ, विजय हो या भूल हो।

लग तो सकते हैं हृदय में, तीर शब्दों के चले,
मानसिक पीड़ा हुयी भी, वो हलाहल विष भरे।

एक दिन सहता रहा मैं, वेदना की पूर्णता,
चेतना पर लक्ष्य अंकित, खड़ा जीवट सा बढ़ा।

भूत मेरे निश्चयों की कोठरी में बंद है,
आज का दिन और यह पल, यहीं से आरम्भ है।

समय संग में चल सके तो, बढ़ा ले गति तनिक सी,
अब नहीं विश्राम लेना, अब नहीं रुकना कहीं।

आश्रितों की वेदना से व्यक्त यह संसार है
यही मेरे परिश्रम का, ध्येय का आधार है।

नहीं चाहूँ पद, प्रतिष्ठा, स्वयं पर निष्ठा घनेरी,
नहीं आशा प्रशंसा की, कार्य की बस चाह मेरी ।

18.6.11

स्वप्न मेरे

स्वप्न देखने में कोई प्रतिबन्ध नहीं है। वास्तविकता कितना ही द्रवित कर दे, सुधार के उपाय मृगतृष्णावत कितना भी छकाते रहें, पाँच वर्ष पहले किये गये वादों की ठसक भले ही कितनी पोपली हो गयी हो, किलो भर के समाचारपत्र कितना ही अपराधपूरित हो जायें, भविष्य के चमकीले स्वप्न देखने का अधिकार हमसे कोई नहीं छीन सकता है, देखते रहे हैं और देखते रहेंगे। कोई कह सकता है कि संविधान के अनुच्छेद 14 में सबको समानता का अधिकार है और जब कोई भी स्वप्न देखने योग्य बचा ही नहीं तब आप क्यों अपनी नींद में व्यवधान डाल रहे हैं? संविधान का विधान सर माथे, पर क्या करें आँख बन्द होते ही स्वप्न तैरने लगते हैं।

स्वप्न सदा ही बड़े होते हैं, हर अनुपात में। अथाह सम्पदा, पूर्ण सत्ता, राजाओं की भांति, 'यदि होता किन्नर नरेश मैं' कविता जैसा स्वप्न। सामान्य जीवन के सामान्य से विषयों को स्वप्न देखने के लिये चुनना स्वप्नशीलता का अपमान है। राह चलते किसी को प्यार से दो शब्द कह देना स्वप्न का विषय नहीं हो सकता है, पति-पत्नी के प्रेम का स्थायित्व स्वप्न का विषय नहीं हो सकता है, एक सरल या सहज सी जीवनी स्वप्न का विषय नहीं हो सकती है, स्वप्न तो ऐश्वर्य में मदमाये होते हैं, स्वप्न तो प्राप्ति के उद्योग में अकुलाये होते हैं।

मैं अपने स्वप्नों के बारे में सोचता हूँ। पता नहीं, पर मुझे इतने भारी स्वप्न आते ही नहीं हैं? बड़ा प्रयास करता हूँ कि कोई बड़ा सा स्वप्न आये, गहरी साँस भरता हूँ, आकाश की विशालता से एकीकार होता हूँ, पर जब आँख बन्द करता हूँ तो आते हैं वही, हल्के फुल्के से स्वप्न। मेरे स्वप्नों में एक हल्का फुल्का सा प्रफुल्लित बचपन होता है, प्रेमपगा परिवार होता है, कर्मनिरत दिन का उजाला होता है और शान्ति में सकुचायी निश्चिन्त सी रात्रि होती है। इसके बाहर जाने में ऐसा लगता है कि जीवन सीमित सा हो जायेगा।

जटिलताओं का भय मेरे चिन्तन का उत्प्रेरक है, यदि सब सरल व सहज हो जाये तो संभवतः मुझे चिन्तन की आवश्यकता ही न पड़े। प्रक्रियाओं के भारीपन में मुझे न जाने कितने जीवन बलिदान होते से दिखते हैं। व्यवस्था जब सरलता में गरलता घोलने लगती है, मन उखड़ सा जाता है। कभी क्रमों और उपक्रमों से सजी व्यवस्था देखकर हाँफने लगता हूँ, कभी मन ही मन गुनगुनाने लगता हूँ, 'आह भरकर गालियाँ दो, पेट भरकर बददुआ'। उन जटिलताओं का ऑक्टोपस कहीं जकड़ न ले, इसी भय से तुरन्त ही सोचना प्रारम्भ कर देता हूँ। यदि लगता है कि कुछ योगदान कर सकता हूँ तो उस पर और चिन्तन कर लेता हूँ। यही मेरे स्वप्नों की विषयवस्तु हो गयी है, बस प्रक्रियायें सरल हों, राजनीति जन-उत्थान को प्राथमिकता दे, लोक-व्यवहार बिना लाग लपेट के सीधा सा हो, सर्वे भवन्तु सुखिनः वाले स्वप्न।

आप सब भी संभवतः यही चाहते होंगे कि हर जगह पारदर्शिता हो, कहीं शोषण न हो, व्यवस्थायें सरल हों, कोई किसी कार्य को करवाने के लिये पैसा न मांगे। बहुत देशों में जीवन का स्तर इन्हीं छोटी छोटी चीजों से ऊँचा होता गया। हम दुनिया भर की बुद्धि लिये बैठे हैं पर छोटी छोटी चीजों को न अपनाने से विकास-कक्ष के बाहर बैठे अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। चाह हम सबकी भी उसी राह की है जो समतल हो। किसी ने कभी उस पर स्वार्थ की कीलें बिखेरी होंगी, एक कील हमें चुभती है और हम क्रोध में आने वालों के लिये कीलें बिखरेना प्रारम्भ कर देते हैं। एक राह जो सुख दे सकती थी, दुखभरी हो जाती है। 

मेरे गहनतम स्वप्नों में मुझे कोई झुका सा दिखता है, उन्हीं समतल राहों में, पास जाकर देखता हूँ चेहरा स्पष्ट नहीं दिखता है, पर उसके हाथ में एक थैला है जिसमें वह राह में पड़ी कीलें समेट रहा है, मैं साथ देने को आगे बढ़ता हूँ, वह कहता है बेटा संभल के, चुभ जायेंगी।

मेरा स्वप्न टूट जाता है।

15.6.11

लिखें या टाइप करें

इस विषय में कोई संशय नहीं कि लिखित साहित्य ने पूरे विश्व की मानसिक चेतना का स्तर ऊपर उठाने में एक महत योगदान दिया है। सुनकर याद रखने के क्रम की परिणति कालान्तर में भ्रामक हो जाती है और बहुत कुछ परम्परा के वाहक पर भी निर्भर करती है। व्यासजी ने भी यह तथ्य समझा और स्मृति-ज्ञान को लिखित साहित्य बनाने के लिये गणेशजी को आमन्त्रित किया। व्यासजी के विचारों की गति गणेशजी के द्रुतलेखन की गति से कहीं अधिक थी अतः प्रथम लेखन का यह कार्य बिना व्यवधान सम्पन्न हुआ।

व्यासजी और गणेशजी का सम्मिलित प्रयत्न हम सब नित्य करते हैं, विचार करते हैं और लिखते हैं। जब तक टाइप मशीनों व छापाखानों का निर्माण नहीं हुआ था, हस्तलिखित प्रतियाँ ही बटती थीं। कुछ वर्ष पहले तक न्यायालयों में निर्णयों की लिखित-प्रति देने का गणेशीय कर्म नकलबाबू ही करते रहे। अब हाथ का लिखा, प्रशासनिक आदेशों, परीक्षा पुस्तिकाओं, प्रेमपत्रों और शिक्षा माध्यमों तक ही रह गया है, कम्प्यूटर और आई टी हस्तलेखन लीलने को तत्पर बैठे हैं।

ज्ञान-क्रांति ने पुस्तकों का बड़ा अम्बार खड़ा कर दिया है, जिसको जैसा विषय मिला, पुस्तक लिख डाली गयी। इस महायज्ञ में पेड़ों की आहुतियाँ डालते रहने से पर्यावरण पर भय के बादल उमड़ने लगे हैं। अब समय आ गया है कि हमें अपनी व्यवस्थायें बदलनी होंगी, कागज के स्थान पर कम्प्यूटर का प्रयोग करना होगा।

भ्रष्टाचार के दलदल में आकण्ठ डूबी सरकारी फाइलों का कम्प्यूटरीकरण करने में निहित स्वार्थों का विरोध तो झेलना ही पड़ेगा, साथ ही साथ एक और समस्या आयेगी, लिखें या टाइप करें। यही समस्या विद्यालयों में भी आयेगी जब हम बच्चों को एक लैपटॉप देने का प्रयास करेंगे, लिखें या टाइप करें। बहुधा कई संवादों को तुरन्त ही लिखना होगा, तब भी समस्या आयेगी, लिखें या टाइप करें। यदि हमें भविष्य की ओर बढ़ने का सार्थक प्रयास करना है तो इस प्रश्न को सुलझाना होगा, लिखें या टाइप करें।

हस्तलेखन प्राकृतिक है, टाइप करने के लिये बड़े उपक्रम जुटाने होते हैं। एक कलम हाथ में हो तो आप लिखना प्रारम्भ कर सकते हैं कभी भी, टाइपिंग के लिये एक कीबोर्ड हो उस भाषा का, उस पर अभ्यास हो जिससे गति बन सके। सबकी शिक्षा हाथ में कलम लेकर प्रारम्भ हुयी है और इतना कुछ कम्प्यूटर पर टाइप कर लेने के बाद भी सुविधा लेखन में ही होती है। हर दृष्टि से लेखन टाइपिंग से अधिक सरल और सहज है। तब क्या हम सब पुराने युग में लौट चलें? नहीं, अपितु भविष्य को अपने अनुकूल बनायें। हस्तलेखन और आधुनिक तकनीक का संमिश्रण करें तो ही आगत भविष्य की राह सहज हो पायेगी।

टैबलेट कम्प्यूटरों का पदार्पण एक संकेत है। धीरे धीरे भौतिक कीबोर्ड और माउस का स्थान आभासी कीबोर्ड ले रहा है। ऊँगलियों और डिजिटल पेन के माध्यम से आप स्क्रीन पर ही अपना कार्य कर सकते हैं। इसमें लगायी जाने वाली गोरिल्ला स्क्रीन अन्य स्क्रीनों से अधिक सुदृढ़ होती है और बार बार उपयोग में लाये जाने पर भी अपनी कार्य-क्षमता नहीं खोती है। कम्प्यूटर पर अपने हाथ से लिखा पढ़ने का आनन्द ही कुछ और है। कुछ दिन पहले ही एक टचपैड के माध्यम से कुछ चित्र बनायें है और हाथ से लिखा भी है।

ऐसा नहीं है कि आपका हस्तलेखन कम्प्यूटर पहचान नहीं सकता है। अंग्रेजी सहित कई भाषाओं में यह तकनीक विकसित कर ली गयी है और आशा है कि हिन्दी के लिये भी यह तकनीक शीघ्र ही आ जायेगी। ऐसा होने पर आप जो भी लिखेंगे, जिस भाषा में लिखेंगे, वह यूनीकोड में परिवर्तित हो जायेगा। अब आप जब चाहें उसे उपयोग में ला सकते हैं, ब्लॉग के लिये, ईमेल के लिये, छापने के लिये, संग्रह के लिये।

जब स्लेट की आकार की टैबलेट हर हाथों में होंगे और साथ में होंगे लिखने के लिये डिजिटल पेन, जब इन माध्यमों से हम अपने व्यक्तिगत और व्यावसायिक कार्य निष्पादित कर सकेंगे, तब कहीं आधुनिकतम तकनीक और प्राचीनतम विधा का मेल हो पायेगा, तब कहीं हमें प्राकृतिक वातावरण मिल पायेगा, अपने ज्ञान के विस्तार का। बचपन में जिस तरह लिखना सीखा था, वही अभिव्यक्ति का माध्यम बना रहेगा, जीवनपर्यन्त।

11.6.11

स्वप्न-चिन्तन, द्वन्द-जीवन

लेटने के बाद और नींद आने तक किया गया चिन्तन न तो चिन्तन की श्रेणी में आता है और न ही स्वप्न की श्रेणी में। दिन भर के एकत्र अनुभव से उपजे विचारों की ऊर्जा शरीर की थकान के साथ ही ढलने लगती है, मन स्थिर हो जाने के प्रयास में लग जाता है। कुछ विचार स्मृति में जाकर ठहर जाते हैं, हठी विचार कुछ और रुकना चाहते हैं, महत्व व्यक्त करते हैं चिन्तन के लिये। शरीर अनुमति नहीं देता है, निष्चेष्ट होता जाता है, मन चलता रहता है, चिन्तन धीरे धीरे स्वप्न में विलीन हो जाता है। इस प्रक्रिया को अब क्या नाम दें, स्वप्न-चिन्तन संभवतः इसे पूरी तरह से स्पष्ट न कर पाये।

बड़े भाग्यशाली होते हैं वे, जिनको बिस्तर पर लेटते ही नींद आ जाती है, उनके लिये यह उथल पुथल न्यूनतम रहती है। जब दिन सामान्य नहीं बीतता है, तब यह कालखण्ड और भी बड़ा हो जाता है। कटु अनुभव या तो कोई हल निकाल लेता है या क्षोभ बनकर मानसिक ऊर्जा खाता रहता है। सुखद अनुभव या तो आनन्द की हिलोरें लेने लगता है या गुरुतर संकल्पों की मानसिक ऊर्जा बन संचित हो जाता है। जो भी निष्कर्ष हो, हमें नींद के पहले कोई न कोई साम्य स्थापित कर लेना होता है स्वयं से।

यही समय है जब आप नितान्त अकेले होते हैं, विचार श्रंखलाओं की छोटी-छोटी लहरियाँ इसी समय उत्पन्न होती हैं और सिमट जाती हैं, आपके पास उठकर लिखने का भी समय नहीं रहता है उसे। सुबह उठकर याद रह गया विचार आपकी बौद्धिक सम्पदा का अंग बन जाता है।

अनिश्चय की स्थिति इस कालखण्ड के लिये अमृतसम है, इसे ढलने नहीं देती है। कई बार तो यह समय घंटों में बदल जाता है, कई बार तो नींद खड़ी प्रतीक्षा करती रहती है रात भर, कई बार तो मन व्यग्र हो आन्दोलित सा हो उठता है, कई बार उठकर आप टहलने लगते हैं, ऐसा लगता है कि नींद के देश जाने के पहले विषय आपसे अपना निपटारा कर लेना चाहते हों। यदि क्षुब्ध हो आप अनिर्णय की स्थिति को यथावत रखते हैं तो वही विषय आपके उठने के साथ ही आपके सामने उठ खड़ा होता है।

निर्णय ऊर्जा माँगता है, निर्भीकता माँगता है, स्पष्ट विचार प्रक्रिया माँगता है। अनुभव की परीक्षा निर्णय लेने के समय होती है, अर्जित ज्ञान की परीक्षा निर्णय लेने के समय होती है, बुद्धि विश्लेषण निर्णय लेने के समय काम आता है, जीवन का समस्त प्रशिक्षण निर्णय लेने के समय परखा जाता है। यह हो सकता है कि आप अनिश्चय से बचने के लिये हड़बड़ी में निर्णय ले लें और निर्णय उचित न हो पर निर्णय न लेकर मन में उबाल लिये घूमना तो कहीं अधिक कष्टकर है।

जिस प्रकार निर्णय लेकर दुःख पचाने का गुण हो हम सबमें, उसी प्रकार उल्लास में भी भारहीन हो अपना अस्तित्व न भूल बैठें हम। सुखों में रम जाने की मानसिकता दुखों को और गहरा बना देती है। द्वन्द के किनारों पर रहते रहते बीच में आकर सुस्ताना असहज हो जाता है हमारे लिये। 1 या 0, आधुनिक सभ्यता के मूल स्रोत भले ही हों पर जीवन इन दोनों किनारों के भीतर ही सुरक्षित और सरल रहता है।

सुख और दुःख के बीच का आनन्द हमें चखना है, स्वप्न और चिन्तन के बीच का अभिराम हमें रखना है, प्रेम और घृणा के बीच की राह हमें परखना है, दो तटों से तटस्थ रह एक नया तट निर्मित हो सकता है जीवन में।   

पिताजी आजकल घर में हैं, सोने के पहले ईश्वर का नाम लेकर सोने की तैयारी कर रहे हैं, 'राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट'। अपने द्वन्द ईश्वर को अर्पित कर, चिन्तन और स्वप्न के बीच के अनिश्चय को कर्ता के समर्थ हाथों में सौंप कर निशा-मग्नता में उतर गये, अनिर्णयों की श्रंखला का समुचित निर्णय कर निद्रा में उतर गये।

अपना द्वन्द स्वयं ही समझना है। ईश्वर ने संकेत दे दिया है। मैं भी रात भर के लिये अपनी समस्याओं की टोकरी भगवान के नाम पर रखकर सोने जा रहा हूँ। रात भर में संभावना यही है कि समस्या अपना रूप नहीं बदलेगीं, सुबह होगी, नयी ऊर्जा होगी, तब उनसे पुनः जूझूँगा।

8.6.11

पाँच किलो का बालक, दस किलो का बस्ता

भाग्य अच्छा रहा जीवन भर कि कभी भारी बस्ता नहीं उठाना पड़ा। इसी देश में ही पढ़े हैं और पूरे 18 वर्ष पढ़े हैं। कक्षा 5 तक स्थानीय विद्यालय में पढ़े, जहाँ उत्तीर्ण होने के लिये उपस्थिति ही अपने आप में पर्याप्त थी, कुछ अधिक ज्ञान बटोर लेना शिक्षा व्यवस्था पर किये गये महत उपकार की श्रेणी में आ जाता था। न कभी भी बोझ डाला गया, न कभी भी सारी पुस्तकें बस्ते में भरकर ले जाने का उत्साह ही रहा। हर विषय की एक पुस्तक, एक कॉपी, उसी में कक्षाकार्य, उसी में गृहकार्य। कक्षा 6 से 12 तक छात्रावास में रहकर पढ़े, ऊपर छात्रावास और नीचे विद्यालय। मध्यान्तर तक की चार पुस्तकें हाथ में ही पकड़कर पहुँच जाते थे, यदि किसी पुस्तक की आवश्यकता पड़ती भी थी तो एक मिनट के अन्दर ही दौड़कर ले आते थे। छात्रावासियों के इस भाग्य पर अन्य ईर्ष्या करते थे। आईआईटी में भी जेब में एक ही कागज रहता था, नोट्स उतारने के लिये जो वापस आकर नत्थी कर दिया जाता था सम्बद्ध विषय की फाइल में। भला हो आई टी का, नौकरी में भी कभी कोई फाइल इत्यादि को लाद कर नहीं चलना पड़ा है, अधिकतम 10-12 पन्नों का ही बोझ उठाया है, निर्देश व निरीक्षण बिन्दु मोबाइल पर ही लिख लेने का अभ्यास हो गया है।

अब कभी कभी अभिभावक के रूप में कक्षाध्यापकों से भेंट करने जाता हूँ तो लौटते समय प्रेमवश पुत्र महोदय का बस्ता उठा लेता हूँ। जब जीवन में कभी भी बस्ता उठाने का अभ्यास न किया हो तो बस्ते को उठाकर बाहर तक आने में ही माँसपेशियाँ ढीली पड़ने लगती हैं। हमसे आधे वज़न के पुत्र महोदय जब बोलते हैं कि आप इतनी जल्दी थक गये और आज तो इस बैठक के कारण दो पुस्तकें कम लाये हैं, तब अपने ऊपर क्षोभ होने लगता है कि क्यों हमने जीवन भर अभ्यास नहीं किया, दस किलो का बस्ता उठाते रहने का।

देश के भावी कर्णधारों को कल देश का भी बोझ उठाना है, जिस स्वरूप में देश निखर रहा है बोझ गुरुतम ही होता जायेगा। यदि अभी से अभ्यास नहीं करेंगे तो कैसे सम्हालेंगे? जब तक हर विषय में चार कॉपी और चार पुस्तकें न हो, कैसे लगेगा कि बालक पढ़ाई में जुटा हुआ है, सकल विश्व का ज्ञान अपनी साँसों में भर लेने को आतुर है। जब हम सब अपने मानसिक और भौतिक परिवेश को इतना दूषित और अवशोषित करके जा रहे हैं तो निश्चय ही आने वाली पीढ़ियों को बैल बनकर कार्य करना पड़ेगा, शारीरिक व मानसिक रूप से सुदृढ़ होना पड़ेगा। देश की शिक्षा व्यवस्था प्रारम्भ से ही नौनिहालों को सुदृढ़ बनाने के कार्य में लगी हुयी है। भारी बस्ते निसन्देह आधुनिक विश्व के निर्माण की नींव हैं।

आगे झुका हुआ मानव आदिम युग की याद दिलाता है, सीधे खड़ा मानव विकास का प्रतीक है। आज भी व्यक्ति रह रहकर पुरानी संस्कृतियों में झुकने का प्रयास कर रहा है। पीठ पर धरे भारी बस्ते बच्चों को विकास की राह पर ही सीधा खड़ा रखेंगे, आदिम मानव की तरह झुकने तो कदापि नहीं देंगे। रीढ़ की हड़्डी के प्राकृतिक झुकाव को हर संभव रोकने का प्रयास करेगा भारी बस्ता।

कहते हैं कि बड़े बड़े एथलीट जब किसी दौड़ की तैयारी करते हैं तो अभ्यास के समय अपने शरीर और पैरों पर भार बाँध लेते हैं। कारण यह कि जब सचमुच की प्रतियोगिता हो तो उन्हें शरीर हल्का प्रतीत हो। इसी प्रकार 17-18 वर्षों के भार-अभ्यास के बाद जब विद्यार्थी समाज में आयेंगे तो उन्हें भी उड़ने जैसा अनुभव होगा। इस प्रतियोगी और गलाकाट सामाजिक परिवेश में इससे सुदृढ़ तैयारी और क्या होगी भला?

हम सब रेलवे स्टेशन जाते हैं, कुली न मिलने पर हमारी साँस फूलने लगती है, कुली मिलने पर जेब की धौंकनी चलने लगती है। यदि अभी से बच्चों का दस किलो का भार उठाने का अभ्यास रहेगा तो भविष्य में बीस किलो के सूटकेस उठाने में कोई कठिनाई नहीं आयेगी। गाँधी और विनोबा के देश में स्वाबलम्बन का पाठ पढ़ाता है दस किलो का बस्ता। मेरा सुझाव है कि कुछ विषय और पुस्तकें और बढ़ा देना चाहिये। पढ़ाई हो न हो, अधिक याद रहे न रहे पर किसी न किसी दिन माँ सरस्वती को छात्रों पर दया आयेगी, इतना विद्या ढोना व्यर्थ न जायेगा तब।

आज बचपन की एक कविता याद आ गयी, कवि का नाम याद नहीं रहा। कुछ इस तरह से थी।

आज देखो हो गया बालक कितना सस्ता,
पाँच किलो का खुद है, दस किलो का बस्ता।

4.6.11

आधुनिक झुमका

तकनीक हमारी जीवनशैली बदल देती है। नयी जीवनशैली नये अनुभव लेकर आती है। दो घटनायें ही इस तथ्य को स्थापित करने के लिये पर्याप्त हैं।

सामने से आते एक व्यक्ति को हल्के से मुस्कराते हुये देखता हूँ, सोचता हूँ कि कोई परिचित तो नहीं, याद करने का यत्न करता हूँ कि कहाँ देखा है, जैसे जैसे पग आगे बढ़ाता हूँ अपनी स्मरणशक्ति पर झुँझलाहट होने लगती है, भ्रम-मध्य में खड़ा परिचय-अपरिचय की मिश्रित भंगिमा बनाकर उनके सम्बोधन की डोर ढूँढ़ता हूँ, किन्तु आगन्तुक बिना कुछ कहे ही निकल जाते हैं। अरे, तो मुस्कराये क्यों थे, थोड़ा ध्यान से देखा तो महाशय ब्लूटूथ पर अपनी प्रेमिका से बतिया रहे थे और हमारी स्मरणशक्ति पर अकारण ही जोर डाल रहे थे। चलिये, एक बार स्मरणशक्ति पर तो आक्षेप सहा जा सकता है पर जब सामने से यही प्रक्रिया कोई कन्या कर बैठे तो आप वहीं खड़े हो जायेंगे, किंकर्तव्यविमूढ़ से। यदि दुर्भाग्यवश आपकी पत्नी आपके साथ में हों तो संशयात्मक भँवरों में उतराने के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं बचेगा आपके लिये।

एक साफ्टवेयर कम्पनी में कार्यरत पतिदेव अपनी श्रीमतीजी के साथ होटल में खाने जाते हैं। इसी बीच एक अन्तर्राष्ट्रीय कान्फ्रेन्स कॉल आ जाती है, पत्नी को बिना कुछ बताये पतिदेव कान में ब्लूटूथ लगाकर वार्तालाप सुनने लगते हैं, पर आँखें एकाग्र अपनी पत्नी पर टिकाये हुये। पत्नी का हृदय आनन्द में हिलोर उठता है, उन्हें लगता है कि पुराने दिन पुनः वापस आ गये हैं, आनन्दविभोर उनकी माँगों की सूची धीरे धीरे शब्दरूप लेने लगती हैं एक के बाद एक, वह भी बड़े प्यार से, पति एकाग्रचित्त हो सप्रेम देखते ही रहते हैं। अब सूची इतनी बड़ी हो गयी कि पत्नी को संशय होने लगा, अटपटा भी लगने लगा, सकुचा कर पत्नी शान्त हो जाती हैं। उसी समय कॉल समाप्त होती है और पति उत्सुकता वश पूछ बैठते हैं कि आप कुछ कह रहीं थी क्या? उफ्फ..., अब शेष दृश्य आप बस कल्पना कर लीजिये, मुझमें तो वह सब सुनाने की सामर्थ्य नहीं है।

कान में लगाने वाला ब्लूटूथ का यन्त्र आधुनिक जीवनशैली का अभिन्न अंग है। जिन्होने आधा किलो के फोन रिसीवर का कभी भी उपयोग किया है, उनके लिये डेढ़ छटाक का यह आधुनिक झुमका किसी चमत्कार से कम नहीं है। आप बात कर रहे हैं पर आपके दोनों हाथ स्वतन्त्र हैं, कुछ भी करने के लिये। न जाने कितने लोग इसका उपयोग कर गाड़ी चलाते हुये भी बतियाते हैं, ट्रैफिकवाला भले ही कितनी भी बड़ी दुरबीन लेकर देख ले, उसे किसी भी नियम का उल्लंघन होता हुआ नहीं दिखायी देगा, अपितु लगेगा कि कितने एकाग्र व प्रसन्नचित्त वाहन चालक हैं।

निश्चय ही बहुत घटनायें होंगी, चलते चलते खम्भे से भिड़ने की या चलाते चलाते गाड़ी भिड़ाने की। आधुनिक झुमका होने से कम से कम इतनी सुविधा तो है कि दोनों हाथ खाली रहते हैं, स्वयं को सम्हालने के लिये। एक हाथ में मोबाइल होने से तो भिड़ने व भिड़ाने की सम्भावनायें दुगनी हो जाती हैं।

हमारे पास भी आधुनिक झुमका है, फोन आते ही कान में लगा लेते हैं। सुरक्षित क्षेत्र में हैं क्योंकि न ही गाड़ी चलाते हैं और न ही हँसकर बात करने वाली कोई प्रेमिका ही है। बात करते करते निर्देशों को मोबाइल पर ही लिख लेते हैं, बात यदि हल्की फुल्की हो तो मेज पर हल्का सा तबला बजा लेते हैं, बात यदि बहुत लम्बी चलनी हो तो घर में फैला हुआ सामान समेटने में लग जाते हैं।

कल ही पढ़ा है कि मोबाइल तरंगें, ब्लूटूथ तरंगों से अधिक घातक होती हैं, कैंसर तक हो सकता है, आधुनिक झुमका लेना हमारे लिये व्यर्थ नहीं गया। मोबाइल भी आवश्यक है और शरीर भी, दोनों में सुलह करा देता है यह आधुनिक झुमका। कम से कम साधनों में जीने वाले जीवों को एक अतिरिक्त यन्त्र को सम्हाल कर रखना बड़ा कष्टप्रद हो सकता है पर स्वास्थ्य, सुरक्षा और सौन्दर्य की दृष्टि से यह आवश्यक भी है। श्रीमतीजी के कनक-छल्लों से तो बराबरी नहीं कर पायेगा आधुनिक छल्ला पर इसे पहन कर आप अधिक व्यस्त और कम त्रस्त अवश्य ही दिखेंगे।

1.6.11

कुछ और बढ़ें - हिन्दी और मोबाइल

यह बात तो निश्चित है कि जब तक मोबाइल में हिन्दी पूरी तरह से संस्थापित नहीं हो जाती है, तब तक हम भी गूगल में अपनी खोज धौंकते रहेंगे। हर बार थोड़ा समय मिलते ही शोध प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है, कुछ नहीं तो उस पर चल रहे संवादों और सम्बन्धित प्रकल्पों की अद्यतन स्थिति ही ज्ञात हो जाती है। पिछले दस दिनों में दो अप्रत्याशित सफलताओं ने खोज-विधियों में और भी सृजनात्मकता ला दी है। मन प्रसन्न तो है पर पूरी तरह से संतुष्ट नहीं। यदि किसी ऐसे पद में होता कि मोबाइल कम्पनियों को धमका कर हिन्दी कीबोर्ड निचोड़ सकता तो धैर्य व प्रतीक्षा को अपनी सतत खोज का आधार न बनाता, पर जब सम्प्रति में भाग्य भी हिन्दी की तरह ही अपुष्ट हो तो व्यग्रता मन के भीतर सम्हाल कर रखनी पड़ेगी।

आपकी भी व्यग्रता भी न बढ़ जाये अतः इन दो सफलताओं के बारे में बता देता हूँ। पहली तो आईफोन, आईपॉड व आईपैड में हिन्दीराइटर के नाम से विकसित ट्रांसलिटरेशन आधारित कीबोर्ड की व्यवस्था और दूसरी ब्लैकबेरी पर पूर्ण हिन्दी कीबोर्ड की उपस्थिति।

एप्पल वैसे तो 37 भाषाओं में कीबोर्ड देने का दम्भ भरते हैं पर उसमें हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं का कोई स्थान नहीं है। सीडैक ने वर्तमान अँग्रेज़ी कीबोर्ड पर आधारित हिन्दी टाइपिंग तन्त्र विकसित किया है। जो लोग बरह में टाइपिंग के अभ्यस्त हैं उन्हें कोई समस्या नहीं आयेगी। अपने घर में आईपॉड पर, मित्र के आईफोन पर और एप्पल स्टोर में आईपैड2 पर टाइप करके देखा, गति तो नहीं पर संतुष्टि मिल गयी। इस कीबोर्ड से लिखा हुआ कट और पेस्ट के माध्यम से ही दूसरे प्रोग्रामों में स्थानान्तरित हो सकता है।

ब्लैकबेरी फोन मोबाइल क्षेत्र में एक सम्मानित स्थान रखता है। व्यस्त नवयुवा और अभ्यस्त व्यवसायी इसका उपयोग अपनी सारी संचार आवश्यकताओं का निराकरण एक जगह पर हो जाने के कारण करते हैं। आपके ईमेल ब्लैकबेरी सर्वर के माध्यम से एसएमएस की तरह ही आपके ब्लैकबेरी में अवतरित होते हैं। कई कम्पनियों के सारे ईमेल इस माध्यम से सुरक्षित आदान प्रदान किये जाते हैं। ब्लैकबेरी की अपनी भी एक संदेश सेवा है जो किसी भी देश में आपको अन्य ब्लैकबेरी धारकों से सम्पर्क में रखती है और वह भी निशुल्क और संभवतः यही कारण उसे व्यस्त जनों के बीच एक आवश्यक व उपयोगी उपकरण बना देता है।

जो विशेषता इसे इतना लोकप्रिय बनाती है उसी ने इसका सर्वाधिक शक्तिशाली और प्रभावी धारक खो दिया। माननीय ओबामा के राष्ट्रपति बनने के पहले तक उनके हाथ में सज्जित रहा ब्लैकबेरी फोन सुरक्षा कारणों से उन्हें उपयोग में नहीं लाने दिया गया।

व्यस्त नवयुवा, अभ्यस्त व्यवसायी और ओबामीय विवशता से समान रूप से दूर होने पर भी ब्लैकबेरी का आकर्षण सदा ही मेरे लिये बना रहा। परिचालन विभाग में आने के बाद एक ऐसे उपकरण की आवश्यकता लगने लगी जिस पर सारे त्वरित-तथ्य किसी शब्द सीमा या नेटीय सीमा के बँधे बिना ही आ जा सके। एक ब्लैकबेरी और उसकी सेवायें ले लीं।

मन में तनिक भी आशा नहीं की थी कि ब्लैकबेरी मोबाइल में हिन्दी पढ़ सकूँगा, लिखना तो बहुत दूर की बात थी। ईमेलों में आने वाले हिन्दी अक्षर डब्बाकार आते थे।

भगवान भी संभवतः धैर्य ही परखता है, ब्लैकबेरी का नया ओएस 6 आया, उसमें भारतीय भाषाओं के लिये समर्थन था। अब टिप्पणियाँ पढ़ने व उन्हें वहीं से ही प्रकाशित करने का कार्य भी होने लगा। इस पूरे समय मैं अपने साथ नोकिया का सी-3 मोबाइल लेकर चलता रहा और उसमें लेखन भी करता रहा। यह जीवनशैली पाँच दिन ही चली होगी कि ब्लैकबेरी में एक और लघु अपडेट आ गयी, अब हमें हिन्दी टंकण का अधिकार मिल गया है। कीबोर्ड इन्स्क्रिप्ट से थोड़ा अलग है पर लेखन का कार्य फिर भी बहुत अच्छे से निपटाया जा सकता है।

मन प्रसन्न है कि हिन्दी में प्रगति हो रही है, इस पोस्ट का बड़ा हिस्सा इसी मोबाइल से लिखा है। धीरे धीरे ही सही पर यह स्पष्ट हो रहा है, मोबाइल निर्माताओं को, कि बिना भारतीय भाषाओं के समर्थन के कोई भी मोबाइल सारे भारत को नहीं लुभा पायेगा। हम पुनः खोज में लगते हैं, मोहि कहाँ विश्राम?