30.4.11

कुलियों का भार

वर्षों पुराना दृश्य है, एक कुली अपने सर पर दो सूटकेस रखे हुये है, एक हाथ से उन्हे सहारा भी दे रहा है, दूसरे हाथ में एक और बैग, शरीर तना हुआ और चाल संतुलित, चला जा रहा है तेजी से पग बढ़ाते हुये, मुख की मांसपेशियाँ शारीरिक पीड़ा को सयत्न ढकने में प्रयासरत, आप साथ में चल रहे हैं और बहुधा आपकी साँस फूलने लगती है साथ चलने भर में। दृश्य आज भी वही रहता है, बस स्थान बदल जाते हैं, यात्री बदल जाते हैं।

कुली आपका सामान यथास्थान रखते हैं, माथे से अपना पसीना पोछते हैं और साधिकार कहते हैं कि जो बनता है, दे दीजिये। आपने जितना पहले से निर्धारित किया होता है, आप उससे भी अधिक दे देते हैं। पसीने की बूंदों में बहुधा वह अधिकार आ जाता है जो आपके कृपण-मन को पराजित कर जाता है। आपको अधिक पैसा देने में कष्ट नहीं होता है।

मैं न तो कुलियों द्वारा निर्धारित से अधिक धन लेने को सही ठहरा रहा हूँ और न ही उन यात्रियों को कोई आदर्श सिखाने का प्रयास कर रहा हूँ जो निर्धारित से अधिक धन देने के लिये पहले से ही मान जाते हैं। यह एक स्वस्थ बहस हो सकती है कि कुली के द्वारा सामान ढोने का क्या मूल्य हो? बाजारवाद के समर्थक और वामपंथी पुरोधा पूरा शोधपत्र तैयार कर देंगे इस विषय पर। यदि जैसे तैसे कोई एक सूत्र निश्चय भी हो तो उसका अनुपालन कैसे होगा? एक व्यस्त स्टेशन में लाखों यात्री एक दिन में चढ़ते उतरते हैं, अधिकतर तो पहिये वाले सूटकेस लेकर चलते हैं, शेष बचे हजारों यात्रियों और कुलियों के बीच हुये लेन देन पर प्रशासनिक दृष्टि रखना संभव ही नहीं है। इन परिस्थितियों में स्टेशन के बाजार में मोल-भाव का पारा चढ़ता है, यात्रियों का बाजारवाद, कुलियों का साम्यवाद और रेलवे का सुधारवाद, जैसे जैसे जो जो प्रभावी होता जाता है, देश उसी पथ पर बढ़ता जाता है।

जहाँ पर विकल्प होता है, बाजार स्वतन्त्र रूप से मूल्य निर्धारित कर लेता है। पर यदि सारे विकल्प यह निश्चित कर लें कि उन्हें विकल्प की तरह प्रस्तुत ही नहीं होना है तो बाजार पर कोई भी नियन्त्रण नहीं रहता है। आप यदि यह निश्चय कर लें कि आप निर्धारित मूल्य ही देंगे तो बहुत स्टेशनों पर यह भी हो सकता है कि कोई आपका सामान ही न ले जाये। आपसी सहमति के बाद निश्चित मूल्य प्रशासन द्वारा निर्धारित मूल्य से अधिक ही रहता है। कहीं कुछ होते हुये नहीं दिखता है, पर यही प्रयासों का अन्त नहीं है।

अपने दृष्टिकोण को यदि नया आयाम दें और विषय को पूर्वाग्रहों से मुक्त कर एक सार्थक रूप दें तो प्रश्न उठेगा कि इतने आधुनिक परिवेश में कुली अपने सर पर बोझ क्यों ढोये? बहुत से यात्री पहियों वाला सूटकेस लेकर चलते हैं पर उसके पहिये छोटे और स्टेशनों में मार्ग अनियमित होने के कारण बहुत असुविधाजनक होते हैं। क्यों न तब कुलियों को एयरपोर्ट जैसी हैण्डट्रॉली दी जाये जिससे सर पर बोझा ढोने के स्थान पर उस ट्रॉली के माध्यम से श्रम को कम किया जा सके। जब श्रम कम होगा, तब यात्रियों से निर्धारित पैसों से अधिक लेने की प्रवृत्ति भी कम होगी। स्टेशनों पर कुलियों का माध्यम आवश्यक सा हो गया है क्योंकि यात्रियों को सीधे ट्रॉली देने से अव्यवस्था और कुलियों द्वारा विरोध की आशंका रहती है।

प्रायोगिक तौर पर ऐसी 30 हैण्डट्रॉलियाँ, बंगलोर स्टेशन पर लगायी गयी हैं। आरम्भिक आशंकाओं के बाद सभ्यता के सशक्त आविष्कार पहियों ने हैण्डट्रॉली के माध्यम से स्टेशन पर अपना स्थान बनाना प्रारम्भ कर दिया है। निकट भविष्य में सभी कुलियों को हैण्डट्रॉली देने की योजना है।

कुलियों का भार कम होने लगा है, आप आशा करें कि उसका सुप्रभाव आपकी जेब के लिये भी हितकर हो। बाजारवाद, साम्यवाद व सुधारवाद में उपजे घर्षण को कोई पहिया कम कर दे।

27.4.11

कान्हा मुरली मधुर बजाये

यदि किसी को संशय हो कि कृष्ण की बांसुरी में क्या आकर्षण था तो उन्हें मेरे साथ होना था, उस सभागार में, जहाँ पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया अपनी बांसुरी के स्वरों से कृष्ण की आकर्षण-प्रमेय सिद्ध करने में लगे थे।

आलाप प्रारम्भ होता है और हृदय की अव्यवस्थित धड़कनों को स्थायित्व मिलने लगता है, आलाप प्रारम्भ होता है और मन के बहकते विचारों को दिशा मिलने लगती है। आँखें स्थिर होते होते बन्द हो जाती हैं, शरीर तनाव से निकल कर सहजता की ढलान में बहने लगता है। तानपुरे की आवृत्तियों के आधार में बांसुरी के स्वर कमलदल की तरह धीरे धीरे खिलने लगते है, वातावरण मुग्धता द्वारा हर लिया जाता है, न किसी की सुध, न किसी की परवाह, समय का वह क्षण सबका आलम्बन छोड़ बस स्वयं में ही जी लेना चाहता है। बीच में कोई नहीं आता है बस स्वरों का हृदय से सीधा संवाद जुड़ने लगता है, स्वरों का आरोह, अवरोह और साम्य हृदय को अपना तत्व प्रेषित कर निश्चिन्त हो जाता है, संचय का कोई प्रश्न नहीं, आनन्द अपनी पूरी जमा पूंजी उड़ाकर पहले अह्लादित और फिर उस हल्केपन की अवस्था में मगन हो जाना चाहता है।

बांसुरी के इस सम्मोहन को छू भर लेने से गोपियों का वह विश्वास मुखर होने लगता है जिसके अधिकार में उद्धव का निर्गुण ज्ञान अपना गर्व खोने लगता है, रत्नाकर की पंक्तियाँ उस अवस्था को सहजता से व्यक्त कर जाती हैं, प्रेम मद छाके पद परत कहाँ के कहाँ।

कल्पना कीजिये, जब वन के मद-गुंजित वातप्रवाह में बांसुरी के स्वर बहते होंगे, सारे पशु पक्षी अपना स्वभाव भूलकर सम्मोहन की स्थिति में उस स्वर के स्रोत की ओर बढ़ने लगते होंगे। मोहन का सम्मोहन, वेणुगोपाल का आकर्षण भला कौन नकार पाता होगा, शत्रु भी उस स्वर-भंवर में डूबते उतराते हुये अपनी मोक्ष-मृत्यु की संरचना गढ़ने लगते होंगे। गोप-ग्वालिनों का अह्लाद समय की सीमा लाँघ अनन्त में स्थिर हो जाता होगा। स्वरों का रुक जाना आनन्द के आकाश से गिर जाने जैसा होता होगा और कान्हा का द्वारका चले जाना तो असहनीय पीड़ा का चरम।

कृष्ण का आकर्षण समझने के लिये आपको उनके आकर्षण की भाषा समझनी होगी। पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया को सुनने से उस भाषा के स्वर और व्यंजन एक एक करके स्पष्ट  होते गये। हृदय की एक एक परत खोलने की कला तो बांसुरी ही जानती है और बांसुरी का मर्म और धर्म अपने अन्दर समेटे पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया, आँख बन्द कर उँगलियों की थिरकन जब बांसुरी पर लहराती है तब हवा को ध्वनि मिल जाती है।

आधुनिकता के धुंधमय कोहरे में जब भारतीय शास्त्रीय संगीत का वृद्ध-सूर्य अपनी चिरयुवा बांसुरी का सम्मोहन बिखराता है, संगीत का आलोक दिखने लगता है, स्वतः, अनुभवजन्य। तब श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये तर्क आवश्यक नहीं होते हैं, जो आनन्दमयी हो जाता है वही श्रेष्ठ हो जाता है

अन्त में जब राग पहाड़ी गूँजने लगा तो सारा सभागार नृत्यमय व उत्सवमय हो गया, बड़ी बांसुरी की गाम्भीर्य सुर लहरी के बाद हाथों में छोटी बाँसुरी ने स्थान ले लिया, स्वर चहुँ ओर थिरक रहे हैं, प्रारम्भ का शान्ति-सम्मोहन अब आनन्द-आरोहण में बदल चुका था।

कृष्णस्य आकर्षण-प्रमेयम्, इति सिद्धम्।

23.4.11

नव विराग

बुद्ध ऐश्वर्य में पले बढ़े पर एक रोगी, वृद्ध और मृत को देखने के पश्चात विरागी हो गये। उनके माता पिता ने बहुत प्रयास किया उन्हें पुनः अनुरागी बना दें पर बौद्ध धर्म को आना था इस धरती पर। अर्जुन रणक्षेत्र में अपने बन्धु बान्धवों को देख विराग राग गाने लगे थे पर कृष्ण ने उन्हें गीता सुनायी, अन्ततः अर्जुन युद्ध करने को तत्पर हो गये, महाभारत भी होना था इस धरती पर। विराग के बीज भारत की आध्यात्मिकता में चारों ओर फैले हैं, गाहे बगाहे होने वाले महापुरुष उसकी चपेट में आते जाते रहते हैं। इन स्थितियों में परिजनों का भी कार्य बढ़ जाता है, अब सफल हों या असफल, पर प्रयास अवश्य होता है परिजनों के द्वारा कि वैराग्य का ज्वर उतर जाये।  वैराग्य से अनुराग और अनुराग से वैराग्य पाने की परम्परा हमारे यहाँ बहुत पुरानी है, इतिहास भी ऐसी घटनाओं को पूर्ण सम्मान और सम्मानित स्थान देता है।

किसी साधु सन्त को देख हम सहज ही श्रद्धानवत हो जाते हैं पर पता नहीं क्यों हम त्यागी पुरुषों के वैराग्य से जितना प्रभावित रहते है, अपनों के वैराग्य से उतना ही सशंकित। त्याग बड़ा आवश्यक है, वैराग्य बड़ा आवश्यक है, समाज में सतोगुण का प्राधान्य बना रहता है इससे पर हमारे अपनों को आकर न छुये यह गुण। भारत के विरागी वातावरण से सशंकित माता पिता सदा ही प्रयास में रहते हैं कि उनके बच्चे अनुरागी बने रहेँ। संस्कार तक तो नैतिक शिक्षा ठीक है पर जैसे ही वह शिक्षा अध्यात्म की ओर बढ़ने लगती है, परिजनों के चेहरे पर व्यग्रता दिखने लगती है। यदि बच्चे का स्वाभाविक रुझान भजन आदि की ओर दिखता है तो उसे अन्य प्रलोभनों से भ्रम मे ढकेलने का क्रम प्रारम्भ हो जाता है।

पुराने समय में जीवन शैली में अच्छे गुण ठूँस ठूँस कर भरे हुये थे, सुबह उठना, माता पिता के पैर छूना, शीघ्र स्नान करना, स्वाध्याय करना, योग व प्राणायाम करना। व्यक्ति मानसिक रूप से सुदृढ़ होता था, वैराग्य जैसे विषय के बारे में सोच सकता था और बहुधा वैराग्य लेने के बाद ही सोचता था। आजकल तो उठने के बाद चाय न मिले तो सर में दर्द होने लगता है, वैराग्य का विचार भी भाग लेता है यह विवशता देख कर।

आधुनिक जीवन शैली ने सशंकित माता पिताओं को संबल दिया है कि उनके बच्चे भले ही एक बार बिगड़ जायें पर वैराग्य की बाते नहीं करेंगे। मन इतने स्थानों पर उलझ गया है कि वहाँ से हटाते हटाते बुढ़ापा धर लेता है और शान्ति से अपनों के ही बीच निर्वाण पाने की विवशता हो जाती है। निश्चिन्त भाव से आप रह सकते हैं, अब बच्चों को अनुरागी बनाने का कार्य मॉल, टीवी और इण्टरनेट कर रहे हैं। इन तीनों ने मिलकर माया में इस तरह से बाँध दिया है कि तन, मन और आत्मा हिलने का भी प्रयास नहीं करते हैं। रही सही जिज्ञासा शिक्षा पद्धति लील गयी है, घिस घिस कर पास हो जाते हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं की बौद्धिक उछलकूद के बाद प्राप्त नौकरी में पिरने के बाद जो तत्व शेष बचता है वह भविष्य की संचरना में तिरोहित हो जाता है।

अब न बुद्ध के माता पिता जैसा दुख होगा किसी को, न कृष्ण जैसा गूढ़ ज्ञान देना पड़ेगा किसी को। भौतिकता और पाश्चात्य संस्कृति ने अनुरागी समाज निर्माण कर दिया है।

माता पिता तो निश्चिन्त हो गये उनके बच्चे अनुरागी बने रहेंगे पर क्या हमारे अन्दर भी वह स्थायित्व आया है कि हम सदा ही अनुरागी बने रह सकते हैं? क्यों कभी कभी सुविधा भरे जीवन में मन उचटने सा लगता है, क्यों हम और अपने अन्दर धसकने लगते हैं, शान्ति को ढूढ़ते ढूढ़ते? कुछ तो है जो अन्दर हिलोरें लेता है, कुछ तो है जिसका साम्य हमारी आधुनिक जीवन शैली से नहीं बैठता है? सुख सुविधायें होने के बाद भी क्यों अतृप्ति सताती है?

बुद्ध को बुद्ध करने वाले तथ्य आज भी हैं, आवरण चढ़ा लें हम उपसंस्कृतियों के, ओढ़ लें चादरें दिग्भ्रमों की, पर हम निश्चिन्त नहीं सो पायेंगे, बुद्ध और अर्जुन का वैराग्य यहाँ के वातावरण में घुला है, नव विराग बनकर।

20.4.11

पर साथ छोड़ क्यों चली गयी

विवाह-पूर्व के प्रेमोद्गारों में एक अनकही सी कड़ी सेंसरशिप लगी रहती है। आप कितना भी उन्हें समझा लें कि यह रचना विशुद्ध कल्पनाशीलता का सुन्दरतम निष्कर्ष है पर आपका आश्वासन धरा का धरा रहता है और उस रचना के हर शब्दों में वह आकार ढूढ़ा जाता है जिसको हृदय में रखकर यह कविता लिखी गयी होगी।

इस संशयात्मक दृष्टिभरी प्रक्रिया में साहित्य की विशेष हानि होती है। जिन रचनाओं को उत्सुक प्रेमियों का हृदयगीत बन अनुनादित होना था, वे अपने अस्तित्व के घेरों और अंधेरों में विवादित हो पड़ी रहती हैं।

आज निर्भयात्मक उच्छ्वास ले उसे आपके सामने रख दे रहा हूँ। आपसे भी यही अनुरोध है कि प्रेम की सुन्दर अल्पना पर अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ा कर उसे कोई और रूप न दें, बस पूर्ण साहित्यिकता से बांचें।


मैने अपने जीवन के, सुन्दरतम स्वप्नों के रंग को,
तेरे कोरे कागज जैसे, आमन्त्रण में भरने को,
सरसायी उन आशाओं में, मैं उत्सुक था, उत्साहित था,
तू आयी भी, इठलायी भी, पर साथ छोड़ क्यों चली गयी ।।१।।

क्यों मुक्त-पिपासा शब्दों का आकार नहीं ले पाती है,
ना जाने किस आशंका में, आकांक्षा कुढ़ती जाती है,
थी व्यक्त सदा मन-अभिलाषा, हर्षाये नेत्र-निवेदन से,
तू समझी भी, मुस्कायी भी, पर साथ छोड़ क्यों चली गयी ।।२।।

है नहीं वाक्‌ प्रतिभा मुझमें, ना ही शब्दों का चतुर चयन,
है नहीं सूझता, किस प्रकार से कह दूँ, हृद के स्पन्दन,
आँखों में था लिये हुये, आन्दोलित मन के आग्रह को,
आँखों से आँख मिलायी भी, पर साथ छोड़ क्यों चली गयी ।।३।।

16.4.11

काइनेक्ट

वीडियो गेम के चहेतों के बारे में आपकी क्या अवधारणा है? एक बच्चा जिसको स्क्रीन पर लगातार आँख गड़ाये रहने से चश्मा लग गया है, या एक बच्चा जिसके अँगूठे कीपैड पर चलते रहने से उसकी बाहों से अधिक शक्तिशाली हो गये हैं, या एक बच्चा जिसकी मानसिक शक्तियाँ अनवरत निर्णय लेते रहने से उसकी शारीरिक क्षमताओं पर भारी पड़ने लगी हैं। मेरा बचपन वीडियो गेम के स्थान पर फुटबाल और तैराकी जैसे स्थूल खेलों में बीता है अतः वीडियो गेम के प्रभावों का व्यक्तिगत अनुभव मुझे कभी नहीं मिला। बचपन के अभावों को युवावस्था में पूरा करने का प्रयास किया तो सपनों में वही वीडियो गेम आने लगे। शीघ्र ही हमें पुनः स्थूल खेलों का आश्रय लेना पड़ा। अब बस कभी कभी केविट्रिक्स नामक वीडियो गेम खेल लेते हैं।

अपने बच्चों को वीडियो गेम में उलझा देखता हूँ तो मेरे मन की उलझन भी बढ़ने लगती है। कभी कम्प्यूटर के सामने, कभी टीवी के सामने, कभी आईपॉड के सामने और कुछ न मिले तो मोबाइल के सामने ही लगे रहते हैं दोनो। बालक टैंक और युद्ध वाले खेलों में जूझता है, बिटिया बार्बी के खेलों में उत्साहित रहती है। अभी तक विद्यालय खुले रहने से उन्हें मिलने वाला समय सीमित रहता था, पर अब परीक्षा समाप्त होने की प्रसन्नता और गीष्मावकाश होने के कारण समय की उपलब्धता,  इसी उत्साह में दिन का सारा समय वीडियो गेम में डूबता हुआ दिखता है। कुछ समझ में नहीं आ रहा है, समझाने में तर्क ढीले पड़ रहे हैं और अधिक डाटने से अवकाश का आनन्द कम हो जाने की संभावना भी है।

भगवान ने सुन ली और समाधान भेज दिया। समस्या गहरी थी अतः मँहगा मार्ग भी बड़ा सुविधाजनक लगा।

काइनेक्ट एक ऐसा वीडियो गेम है जिसमें आप ही उस खेल के एक खिलाड़ी बन जाते हैं। एक सेंसर कैमरा आपकी गतिविधियों का त्रिविमीय चित्र सामने स्थिति स्क्रीन पर संप्रेषित कर देता है और आप उस वीडियो गेम के परिवेश का अंग बन जाते हैं। आप स्क्रीन से लगभग 8 फीट की दूरी पर रहते हैं और खेल में भाग लेने के लिये आपको उतना ही श्रम करना पड़ता है जितना कि वास्तविक खेल में। गति और दिशा, दोनों ही क्षेत्रों में पूर्ण तदात्म्य होने को कारण कुछ ही मिनटों में आपको लगने लगता है कि स्क्रीन में उपस्थित खिलाड़ी आप ही हैं। यह अनुभव ही खेल का उन्माद चरम पर पहुँचा देता है। 

एथलेटिक्स, फुटबाल, बॉलीबाल, टेबल टेनिस, बॉक्सिंग, बाउलिंग, कार रेस, बोट रेस और ऐसे ही बहुत सारे खेल खेलने के बाद बस इतना ही कहा जा सकता है कि शरीर का श्रम वास्तविक खेलों जैसा ही होता है। रोचकता का स्तर बने रहने के साथ ही शरीर का समुचित व्यायाम ही इस खेलतंत्र की विशेषता है। बच्चों को खेलता देख हम भी अपना लोभ संवरण नहीं कर पाये और स्वयं को खिलाड़ी घोषित कर पहुँच गये। सामने सुपुत्र थे और उनका उत्साह बढ़ाती हमारी श्रीमतीजी, बिटिया परिवार में संतुलन लाने का प्रयास करती हमारी ओर थी। हम पूरी गम्भीरता से खेले और हार भी गये। हमारी बिटिया हमें सांत्वना देने के स्थान पर बहुत देर तक खेल की तकनीक समझाती रही। उत्साह में किये श्रम का पता तब चला जब सोने के एक घंटे पहले ही नींद आने लगी।
बच्चे प्रसन्न हैं कि वे वीडियो गेम खेल रहे हैं, हम प्रसन्न हैं कि बच्चों का शारीरिक व्यायाम हो रहा है, घर में उत्सव सा वातावरण है कि सारा परिवार मिल कर खेल रहा है। वीडियो गेम के बारे में हमारी पुरानी अवधारणा अपना स्वरूप खोती जा रही है, अब अभिवावकों को वीडियो गेम से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। काइनेक्ट न केवल मानसिक तीक्ष्णता बढ़ाता है अपितु शारीरिक शक्ति व संतुलन भी बनाये रखता है।

बच्चों की ऊर्जा ग्रीष्मावकाश में बहुत बढ़ जाती है। कॉलोनी के सभी बच्चों को व्यस्त रखने के लिये स्केटिंग, टेबल टेनिस, कैसियो और फ्रेन्च का विकल्प दिया गया है, पर आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि लगभग सभी बच्चे किसी एक में नहीं अपितु चारों अभिरुचियों में भाग ले रहे हैं। बताइये, हम तो काइनेक्ट में ही थक जाते हैं, बच्चे हैं कि थकते ही नहीं हैं।

13.4.11

सफ़र का सफ़र

रेलवे का समाज से सीधा सम्बन्ध है, समाज का कला से, पर जब भारतीय रेल और कला का संगम होता है तो कलाकारों को उन दृश्यों के छोर मिलने प्रारम्भ हो जाते हैं जिनमें एक पूरा का पूरा संसार बसा होता है, प्रतीक्षा का, सहयोग का, निश्चिन्त बिताये समय का, प्लेटफार्मों में घटते विस्तारों का, व्यापार बनते आकारों का और न जाने कितने विचारों का।

जब कभी भी प्लेटफार्म को देखता हूँ, यात्री बनकर नहीं, अधिकारी बनकर नहीं, तटस्थ हो देखता हूँ तो न जाने कितनी पर्तें खुलती जाती हैं। लोगों का भागते हुये आना, एक हाथ में बच्चे, दूसरे में सामान, आँखें रास्ता ढूढ़तीं, पैर स्वतः बढ़ते, कानों में पड़ते निर्देशों और सूचनाओं के सतत स्वर, अपने कोच को पहचान कर सीट में बैठ जाने की निश्चिन्तता, खिड़की से बाहर झांकती बाहर की दुनिया की सुधि और न जाने कितना कुछ। सब देखता हूँ, प्लेटफार्म के कोने में पड़ी एकांत बेंच में बैठकर, गतिविधियों के सागर में अलग थलग पड़ गयी एकांत बेंच में बैठकर। सब एक फिल्म सा, न जाने कितनी फिल्मों से अधिक रोचकता लिये, हर दृश्य नया, प्राचीन से अर्वाचीन तक, संस्कृति से उपसंस्कृति तक, फैशन के रंगों में पुते परिदृश्य, पार्श्व में बजता इंजन की गुनगुनाहट का संगीत, पटरियों की पहियों से दबी दबी घरघराहट, बहु प्रतीक्षित ट्रेन का आगमन, उतरने और चढ़ने वालों में आगे निकलने की होड़, फिर सहसा मध्यम सी शान्ति।

यह चित्रावलि चित्रकारों को न केवल उत्साहित करती है वरन उनकी अभिव्यक्ति का विषय भी बनती है। इन्हीं सुसुप्त भावनाओं को उभारने का प्रयास किया गया रेलवे के एक प्लेटफार्म में, बंगलोर में, 28 मार्च, सुबह से सायं तक। प्रारम्भिक कार्यक्रम के बाद 15 प्रतिष्ठित चित्रकार अपने कैनवास और ब्रश के साथ नितान्त अकेले थे अपनी कल्पना के धरातल पर, दिन भर यात्रियों और कलाप्रेमियों से घिरे वातावरण में चित्र और चित्रकार के बीच चलता हुआ सतत संवाद, ब्रश और कैनवास का संस्पर्श रंगों के माध्यम से, अन्ततः निष्कर्ष आश्चर्यचकित कर देने वाले थे।

मुझे भी चित्रकला का विशेष ज्ञान नहीं है पर शब्दों की चित्रकारी करते करते अब चित्रकला के लिये शब्द मिलने लगे हैं। मेरी चित्रकला की समझ चार मौलिक रंगों और दैनिक जीवन की आकृतियों के परे नहीं जा पाती है। बहुधा हम चित्रों को बना बनाया देखते हैं और उसमें रंगों और आकृतियों के अर्थ ढूढ़ते का प्रयास करते हैं, पर उन रंगों और आकृतियों का धीरे धीरे कैनवास पर उभरते हुये देखना एक अनुभव था मेरे लिये। चित्रकारों की ध्यानस्थ अवस्था में बीता समय कल्पना के समुन्दर में लगायी डुबकी के समान था जिसमें खोजे गये रत्न कैनवास में उतरने को प्रतीक्षित थे। वाक्यों में शब्द सजाने के उपक्रम से अधिक कठिन है कैनवास पर रंगों की रेखायें खींचना।

कला के प्रशंसक चाहते हैं कि चित्रकार और उत्कृष्ट और संवादमय चित्र बनायें, चित्रकार भी चाहते हैं उन आकांक्षाओं को पूरा करना जिनका निरूपण उनकी सृजनात्मकता के लिये एक ललकार है। इन दो आशाओं के बीच धन का समुचित सेतु न हो पाने के कारण चित्रकला का उतना अधिक विस्तार नहीं हो पा रहा है जितना अपेक्षित है। धनाड्यजन ख्यातिप्राप्त चित्रकारों के बने बनाये चित्रों को अपने ड्राइंगरूम में सजा कर अपने कलाप्रेम को व्यक्त कर देते हैं पर संवेदनशील कलाविज्ञ कला को संवर्धित करने का उपाय ढूढ़ते हैं।

यह कलाशिविर उस प्रक्रिया को समझने का सूत्र हो सकता है जिसके द्वारा कला को संवर्धित किया जाना चाहिये। एक कलासंस्था स्थापित और उदीयमान चित्रकारों को प्रोत्साहित करती है और उन्हे ऐसे आयोजनों में आमन्त्रित करती है। चित्रकारों और आयोजकों का पारिश्रमिक एक कम्पनी वहन करती है जिसे रेलवे से सम्बन्धित अच्छे चित्रों की आवश्यकता है। रेलवे इन दोनों संस्थाओं को कलाशिविर के माध्यम से साथ लाती है और माध्यम रहता है, सफर। सफर का प्रासंगिक अर्थ है, Support and appreciation for art and Railways(SAFAR)

इन चित्रों के साथ ही अन्य उदीयमान चित्रकारों ने भित्ति-चित्रों के माध्यम से रेलवे प्लेटफार्म पर अपनी कला के स्थायी हस्ताक्षर अंकित किये। एक बड़ी सी दीवाल पर कला महाविद्यालय के छात्रों ने दिन रात कार्य कर रेलवे प्लेटफार्म को एक और मनोरम दृश्य दिया। इस पूरी कलात्मक क्रियाशीलता में बंगलोर के मंडल प्रबन्धक श्री एस मणि ने एक महती भूमिका निभायी। कला को निसन्देह ऐसे ही संवेदनशील प्रशंसकों की आवश्यकता है।

आप चित्रों का आनन्द उठायें, चित्रों व चित्रकारों के नाम सहित। 


9.4.11

टिक टिक, टप टप

रात आधी बीतने को है, चिन्तन पर विचारों के ज्वार ने अधिकार कर लिया है, ऐसी परवशता देखकर निद्रा भी रूठ कर चली गयी है, आँख गड़ गयी है छत पर लटके हुये पंखे पर, जिसके एक ब्लेड पर सतत चलते रहने से एक ओर ही कालापन उभर आया है। जो आगे रहकर जूझता है, सब कालिमा उसे ही ओढ़नी पड़ती है, समाज का नियम है, पंखा भी निभा रहा है। यह अधिक देख नहीं पाता हूँ, करवट बदल लेता हूँ, पंखे की हवा लेने वाले भी तो यही करते हैं।

करवट बदलने पर आज दबा हुआ हाथ असहज अनुभव कर रहा है, बाहर निकलना चाहता है। जानता हूँ कि समय के ढलान में दूसरा हाथ भी यही नौटंकी करेगा, पुनः पीठ के बल लेट जाता हूँ, फिर वही पंखा, आँख जोर से भींच लेता हूँ, संभवतः उसमें बचे हुये खारेपन को प्रत्युत्तर सा कुछ अनुभव हो जाये। पहले तो लगता था कि आँख बन्द होना ही नींद होता है, आज तो पुतलियाँ बन्द आँखों में भी मचल रही हैं, कभी बायें तो कभी दायें। कुछ स्थिर हुयी आँखें तो कान जग गये। घड़ी का स्वर, टिक टिक, समय भाग रहा है, केवल टिक टिक का शब्द रह रहकर सुनाई दे रहा है। अन्य दिन तो  यह थकान के पीछे छिप जाता था। आज थकान गौड़ हो गयी है, विचारों ने उसका अपहरण कर लिया है। आज टिक टिक पर ध्यान लग गया है।

विज्ञान पर क्रोध आ रहा है, समय का नपना तो बना दिया पर समय को अपना नहीं बनाया। दीवार पर चुपचाप जड़वत पड़ी घड़ी, सूर्यरथ से प्रेरणा ले कर्तव्यनिष्ठावश चलती रहती, अन्तर में कैसी चोट खाती रहती है, टिक टिक, टिक टिक, टिक टिक। सबको समय बताने वालों के हृदय भी ऐसे ही अनुनाद करते होंगे। नहीं नहीं, मुझे तो इस समय समयशून्य होना है, मुझे नहीं सुनना कोई भी स्वर जिससे समय का बोध हो, अपने होने का बोध हो। विज्ञान ने समय तो बताया पर अनवरत सी टिक टिक जोड़ दी जीवन में। अब कल ही जाकर डिजिटल घड़ी लूँगा, विज्ञान के माध्यम से ही विज्ञान का कोलाहल मिटाना पड़ेगा, शिवम् भूत्वा शिवम् यजेत।

शिवत्व का आरोहण और मन में समाधान आ जाने से धीरे धीरे टिक टिक स्वर विलुप्त हो गया। नींद तो फिर भी नहीं आयी, रात्रि के अन्य संकेत सो गये थे, पर पूर्ण स्तब्धता तो फिर भी नहीं थी, कुछ तो स्वर आ रहा था। ध्यान से सुना, टप टप, टप टप, टप टप। हाँ नल खुला था, नहीं नहीं ढीला था। यूँ ही टप टप बहता रहा तो न जाने कितना पानी बह जायेगा, कावेरी का पानी। कुछ कार्य करने की प्रेरणा हुयी। उठा, नल बन्द किया, जल देख प्यास लगना शाश्वत परम्परा है प्रकृति की, जल पीते समय आँखों को गिलास का गोल किनारा सम्मोहित करने लगा। जल की शीतलता और पात्र का सम्मोहन, शरीर के अंग ढीले पड़ने लगे। जाकर लेट गया, मन शान्त सा होता गया, धीरे धीरे, धीरे।

एक संतोष था मन में, यदि नल न बंद करता तो न जाने कितना जल बह जाता, वह जल जो जीवन देता है, न जाने कितनों को। शान्ति मिली, मन की अग्नि बुझने सी लगी, नल तो बन्द करना ही होगा, दिन मे भी वही किया और रात में भी।

मुझे तो टप टप सुनायी पड़ता है, आपको सुनायी पड़ रहा है?  ध्यान से सुनिये आप भी, जहाँ भी टिक टिक सुनायी पड़े, जायें और तुरंत नयी डिजिटल घड़ी ले आयें, तकनीक अपना लें। टप टप सुनायी दे तो नल को कस कर बन्द कर दें, एक बूँद भी न टपके। 

देश के सन्दर्भों में देखेंगे तो न जाने कितना टिकटिकीय कोलाहल उत्पन्न कर दिया है विकास के नाम पर, न जाने कितने नल खोल दिये हैं धनलोलुपों ने और देश की सम्पदा बही जा रही है, न जाने कितने जुझारू पंखो के ऊपर कालिमा पोत दी है जिससे वे कुछ चेष्टा ही न कर सकें।

न टिक टिक सहन हो, न टप टप, न मूढ़ बकर, न व्यर्थ बूँद भर, निश्चय तो करें। पंखा चले, कालिमा लगे तो लगे।

वह एक प्रयासरत है, हम सब भी प्रयासरत हों, तब जाकर देश चैन से सो पायेगा।

6.4.11

तुम ऐश्वर्यपूर्ण, गतिमय हो

अमेरिका का प्रसंग आते ही हम भारतीयों के मन में एक भावभरी उत्कण्ठा जाग जाती है, सुख सुविधाओं का उद्यान, प्रतिभा का सम्मान, अस्तित्व युद्धों का अवसान, ऐश्वर्य का अभिराम, मानव आकांक्षाओं का निष्कर्ष धाम। एक कल्पनामयी डुबकी अमेरिका के विचारों में और लगता है कि मानो डिस्पिरिन मिल गयी हो, संघर्षों का सिरदर्द मिटाने के लिये, कुछ समय के लिये ही सही।

एक पूरा का पूरा समूह था आईआईटी में, जो येन केन प्रकारेण अमेरिका सरक लेने को आतुर था। उनकी भाव भंगिमा, भाषा, पहनावा आदि अमेरिका पहुँचने के पहले ही उसे समर्पित हो चुकी थी। भारत में बिताया जाने वाला शेष समय उन्हें अपने स्वप्नदेश जाने के पहले की तपस्या जैसा लगता था। अमेरिका की अद्भुत आकर्षण शक्ति का अनुभव हमें तभी हो गया था।

आज भी अमेरिका घूम आये नवप्रभावित युवाओं का उत्साह देखते ही बनता है, वहाँ तो यह है, वहाँ तो वह है, वहाँ सब कुछ है, आप अभी तक नहीं गये? सुन सुनकर ऊब चुके हैं अतः उस विषय पर नया प्रकरण प्रारम्भ होने के पहले ही मस्तिष्क की आवृत्ति उस बिन्दु पर नियत कर लेते हैं जिसके ऊपर से कोई भी प्रभावित करने वाला विचार मन में उतर न सके। आश्चर्य पर तब हुआ जब एक निकट सम्बन्धी ने स्तुति-स्वरों के विपरीत वास्तविक अमेरिका-कथा सुनायी।

बात उठी रेलवे के बारे में, मुझे अच्छा लगता है नये अनुप्रयोगों को जानना जिनके द्वारा यात्री सुविधाओं का विस्तार किया जा सके। बैठे बैठे कोई ऐसा तथ्य पता लग जाये जिससे कुछ और सुधार लाया जा सके, भारतीय रेलवे परिवेश में।

अमेरिका के कुछ गिने चुने नगरों की उपनगरीय सेवाओं को छोड़ दें तो शेष जगहों पर रेलवे की उपस्थिति नगण्य है। कम दूरी हो तो लोग अपनी कारों में जाते हैं, अधिक दूरी हो तो हवाई यात्रा करते हैं। रेलवे जहाँ पर भी है उसका उपयोग मूलतः माल ढोने में किया जाता है। लम्बी दूरी की ट्रेनों में और इन्टरसिटी ट्रेनों में 98% से अधिक अमेरिकियों ने अपने पैर भी न धरे होंगे।

पहले रेलवे, तब सड़क और अन्त में वायु की आधुनिक यातायात प्रणालियाँ अस्तित्व में आयीं। किसी भी देश के यातायात का मानचित्र देखें तो लम्बी दूरी की रेखायें रेलवे की होती हैं, रेलवे के बाद जो स्थान रिक्त रह जाता है उसमें सड़क यातायात की घनी रेखायें भरी होती हैं। वायु यातायात बहुत अधिक दूरी के लिये होता है और रेखाओं की संख्यायें कम होती हैं। यूरोप, जापान, चीन और भारत, हर देश में आपको यही अनुपात देखने को मिलेगा। प्रति यात्री किलोमीटर में लगी लागत के अनुसार भी देखा जाये तो रेलवे सर्वाधिक सस्ता साधन है, सड़क मध्यम और वायु सर्वाधिक मँहगा साधन है।  पर्यावरण की भी दृष्टि से भी रेलवे सड़क से 6 गुना स्वच्छ माध्यम है। रेलवे यात्रा अधिक सुविधाजनक होती है, कम लागत लगती है, प्रदूषण कम करती है और यातायात के लिये सर्वोत्तम है। इन साधनों का अनुपात आपको उस देश की अर्थव्यवस्था की दिशा का आभास दे देगा।

यह सब होने के बाद भी अमेरिका का रेलतन्त्र मोटर निर्माताओं और हवाई कम्पनियों के षडयन्त्र की भेंट चढ़ गया। जब रेल कम्पनियों के बोर्ड में फोर्ड और जीएम मोटर्स के अध्यक्ष रहेंगे तो आप और क्या निष्कर्ष पायेंगे। बताते हैं कि पिछले 60 वर्षों से यही अमेरिका के विकास की दशा और दिशा है। यदा कदा यदि किसी मार्ग में यात्री रेलगाड़ियाँ चल भी रही हैं तो उन्हें मालगाड़ियाँ आगे नहीं निकलने देती हैं।

अब कारों का किलोमीटर भर लम्बा जमावड़ा आपको दिखे तो समझ लीजियेगा कि अमेरिका है, यदि हर कार लगभग छोटे ट्रक के बराबर के आकार की हो तो समझ लीजियेगा कि अमेरिका है, यदि हर गाड़ी में एक ही व्यक्ति बैठा हो तो समझ लीजियेगा कि अमेरिका है। कोई आश्चर्य नहीं होगा आपको यह जानकर कि विश्व के औसत से दस गुना और भारतीय औसत से डेढ़ सौ गुना पेट्रोल अमेरिका में उड़ा दिया जाता है। यदि वायु यातायात की बात करें तो भी यही ऐश्वर्य हमें अमेरिका में दिखायी पड़ता है। अब नीरज जाट या अन्तरसोहिल अमेरिका पहुँच जायें तो उन्हे संघर्ष करना पड़ जायेगा घूमने के लिये।

यह ऐश्वर्य यातायात में ही नहीं अपितु उनकी जीवन शैली में भी दृष्टिगत है। हर क्षेत्र में रेलवेतन्त्र की ही तरह मितव्ययता अनुपस्थित है। अब परीलोक में कंगाली दिखे तो परियों का क्या होगा, मेरे उन मित्रों का क्या होगा जो उन परीस्वप्नों की खोज में वहाँ पहुँच गये हैं? जियें, आप ऐश्वर्यमय जियें, जियें आप गतिमय जियें, हम भारतीय अपनी रेलगाड़ी में मगन हैं।

'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना' जैसी स्थिति हमारी भी होती यदि अमेरिका की ऐश्वर्यपूर्ण जीवन शैली विश्व को प्रभावित नहीं करती। संसाधनों की सीमितता और उस पर आधारित सामरिक रणनीतियाँ विश्वपटल पर प्रधान हो गयी हैं। अमेरिका निवासियों को भी भान है इस स्थिति का, ओबामा प्रशासन भी ऐश्वर्यपूर्णता से निकलकर उन तन्त्रों को विकसित करने के लिये कटिबद्ध है जिससे संसाधनों की बचत की जा सके।

कुछ आप बढ़ें, कुछ हम बढ़ते हैं।

2.4.11

जीतता हुआ विश्वास

पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि इस समय मैं किसी दबाव में नहीं हूँ और निष्पक्षमना हो अपने भाव व्यक्त कर रहा हूँ। यह विषय अब अत्यन्त महत्वपूर्ण हो चला है, घर में भी, बाहर भी और जब नित इसे देख रहा हूँ तो बिन कहे रहा भी नहीं जा रहा है।

विकास की आपाधापी में हम कई ओर से घिर गये हैं। प्राकृतिक परिवेश की अनुपस्थिति हमें कई ऐसी प्रक्रियाओं से दूर ले गयी है जो स्वतः ही हो जाया करती थीं और संभवतः इसी कारण उन पर समुचित विचार विमर्श हुआ ही नहीं। कूड़ा-प्रबन्धन भी एक ऐसा ही विषय है।

प्राकृतिक परिवेश में वस्तुओं का उत्पादन और उपयोग लगभग एक ही स्थान पर होता है, लाने ले जाने के लिये विशेष उपक्रमों की आवश्यकता नहीं पड़ती है, उससे सम्बन्धित कूड़ा बनने से बच जाता है। जैविक खाद्य पदार्थों के उपयोग के बाद उन्हें पहले तो पशुओं को दे दिया जाता है और शेष बचने पर खुले स्थान पर डाल दिया जाता जहाँ प्रकृति के कारक पुनः उसे मिट्टीसम बना देते हैं। जैविक-चक्र चलता रहता है, जीवन पल्लवित होता रहता है, कूड़ा-प्रबन्धन भी हो जाता है, सहज और सरल विधि से।

नगरीय परिवेश में हमें, न तो इतना स्थान मिलता है और न ही इतना समय, जिसमें हम कूड़ा-प्रबन्धन जैसे तुच्छ विषय के बारे में सोच सकें। पहले तो अपना कूड़ा निकट के किसी स्थान पर फेंककर अपना घर साफ कर लेते हैं, कहीं और पर कूड़ा पड़ा देख नाक मुँह सिकोड़ लेते हैं, अव्यवस्था के लिये नगरपालिका को अपशब्द प्रेषित कर देते हैं और कुछ संवेदनात्मक चर्चायें कर विषय की उपस्थिति को स्वीकार कर लेते हैं। कूड़ा फिर भी ज्यों का त्यों पड़ा रहता है।

नगरीय कूड़े में जैविक तत्व लगभग 70% होता है, जैविक कूड़े में लगभग 60% पानी होता है, यही दो तत्व कूड़े में सड़न व दुर्गन्ध उत्पन्न करते हैं। यदि हम स्थानीय स्तर पर कूड़ा-प्रबन्धन करें तो मात्र 30% अजैविक कूड़े को ही समेटना पड़ेगा और शेष बचा जैविक कूड़ा खाद में परिवर्तित हो जायेगा, बिना सड़न या दुर्गन्ध के। बात सरल तो है पर समय और लगन मांगती है।

दो वर्ष पहले जब श्रीमतीजी ने इस विषय में रुचि लेनी प्रारम्भ की तो लगा था कि शीघ्र ही कूड़े का सम्मान मन से उतर जायेगा और पुनः कूड़ा वैसे ही पड़ा रहेगा, त्यक्त, दुर्गन्धपूर्ण। किन्तु अब लग रहा है कि रुचि लगन में बदल गयी है, कूड़ा खाद में और प्रथम-श्रम उत्साह बनकर छलकने लगा है।

घर में कूड़ा अलग अलग पात्रों में डाला जाता है, जैविक कूड़ा एक टैंक में डाला जाता है, इस टैंक को मंथन कहते हैं क्योंकि इसमें उसे हिलाने की सुविधा होती है। बीच बीच में इसमें सूखी पत्तियाँ, यदा कदा लकड़ी का बुरादा और एक एक्टीवेटर जैव-रसायन भी डाला जाता है। कूड़ा डालने के बाद मंथन का ढक्कन बन्द कर देते हैं। दिन में एक बार इसे घुमाना भी पड़ता है। पूरा भर जाने के बाद इसे दूसरे पात्र में डालकर चालीस दिन के लिये छोड़ दिया जाता है जो हमें तैयार खाद के रूप में प्राप्त हो जाता है।
विस्तृत रासायनिक प्रक्रिया में न जाकर बस इतना समझ लिया जाये कि बंद टैंक से किसी प्रकार की गन्ध नहीं आती है और कम्पोस्टिंग की प्रक्रिया अधिक गतिशील हो जाती है। बार बार हिलाने से सब जगह हवा पहुँच जाती है और जैव रसायन विघटन को और सरलता से कर सकते हैं। हरी सब्जियों में उपस्थित नाइट्रोजन और सूखी पत्तियों और बुरादे में उपस्थित फॉस्फोरस मिलकर खाद का निर्माण करती हैं।

इस खाद का उपयोग श्रीमतीजी अपनी मूल अभिरुचि बागवानी के लिये करती हैं। जब उन्होने उस खाद के प्रयोग से उत्पन्न पुष्प गुलदस्तों में सजाये तब मुझे लगा कि किस तरह थोड़ी लगन से अपने परिवेश को सुरभिमय किया जा सकता है। मन प्रसन्न तब और हो गया जब इस कार्य से जुड़ी बड़ी संस्था डेली डम्प ने उनके प्रयासों की सराहना की और उन्हें इस कार्य के लिये अनुकरणीय व्यक्तियों में शामिल कर लिया।

यही जीतता हुआ विश्वास है।