29.9.10

नखरे सहने का गुण

कुछ लोगों की सहनशक्ति अद्भुत होती है। उनका अन्तस्थल इतना गहरा होता है कि छोटी मोटी हलचल कहाँ खो जाती है, पता ही नहीं चलता है। वाक्यों की बौछार हो या समस्या का प्रहार, मुखमण्डल में प्रखर साम्य स्थापित। उनसे इतना सीखता रहा जीवन भर कि अब तो दर्पण के सामने खड़े होकर स्वयं को पहचान नहीं पाता हूँ। जीवन जीने में वह गुण अधिक प्रयोग हुआ हो या न हुआ हो पर एक क्षेत्र में यह गुण सघनता से उपयोग में आया है, वह है नखरे सहने में। अब तो बड़े बड़े नखरे पचा ले जाता हूँ, बिना तनिक भी विचलित हुये। 

सहजीवन की एक कला है, यह नखरे सहने का गुण। कभी बच्चों के, कभी उनकी माँ के, कभी समाज के कर्णधारों के, कभी यशदीप के तारों के। यह अपार सहनशक्ति यदि जल बन सागर में प्रवाहित हो जाये तो केवल मनु ही पुनः बचेंगे, वह भी हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, भीगे नयनों से प्रलय-प्रवाह देखते हुये। 

जब तक हमारी नखरे सहने की कुल क्षमता, नखरे करने वालों की क्रियाशीलता से अधिक रहती है, परिवेश में शान्ति बनी रहती है। जैसे ही सहनशक्ति क्षरित होने लगती है, हुड़दंग मचने लगता है। दो कार वाले सम्पन्न जीव, बेकार सी बात के लिये, साधिकार द्वन्दयुद्ध में उद्धृत दिखाई दे जायेंगे। परिवेशीय संतुलन का यह विशेष गुण शान्तिप्रिय जनों की अन्तिम आशा है, जीवन में स्थायित्व बनाये रखने के लिये। अभ्यास मात्र से यह गुण कितना भी बढ़ाया जा सकता है। अपने अपने जीवन में झाँककर देखिये तो आपको यह तथ्य सिद्ध होता दिख जायेगा।

नखरे सहने का गुण पर इतना परमहंसीय भी नहीं है। प्रेम के समय नखरों को क्षमता से अधिक सहन करने का क्रम अन्ततः किसी विस्फोट के रूप में निकलता है। नेताओं के नखरे पाँच वर्षों बाद सड़कों पर निरीह खड़े दिखते हैं। नखरे न केवल सह लेना चाहिये वरन उसे पचा भी ले जाना चाहिये, सदा के लिये। जो नहीं पचा पाते हैं, विकारग्रस्त होने लगते हैं, धीरे धीरे। इस गुण को या तो कभी न अपनायें या अपनायें तो उस पर कोई सीमा न रखें। बस सहते जायें नखरे उनके, एक के बाद एक, निर्विकार हो।

नखरे सहने के गुण में प्रवीणता पाने के लिये नखरे करने वालों की भी मनोस्थिति समझना आवश्यक है। अपने एक गुण के आधार पर पूरा व्यक्तित्व ढेलने के प्रयास को नखरे के रूप में मान्यता प्राप्त है। यदि प्रेमी बहुत सुन्दर हो तो उसके विचार, उसके परिवार, उसके बनाये अचार, सभी की प्रशंसा आपका कर्तव्य है। एक भी क्षेत्र में बरती कोताही का प्रभाव व्यापक और त्वरित होता है। यदि कोई बड़ा नेता बन गया, किसी भी कारण से, तो उसके व्यवहार का अनुकरण और उसके प्रति बौद्धिक समर्पण दोनों ही आपके लिये आवश्यक है। व्यक्तित्व के प्रति पूर्ण समर्पण ही नखरे सह लेने की योग्यता का आधार स्तम्भ है।

आत्मज्ञान जहाँ एक ओर आपकी सहनशक्ति बढ़ाता है वहीं दूसरे पक्ष की क्रियाशीलता कम भी करता है। भारत में आत्मज्ञानी साधुओं और गृहस्थों की अधिक संख्या, विश्वशान्ति के प्रति हमारी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करते हैं।

नखरे सहने में और मूर्खता करने में कुछ तो अन्तर हो। नखरे सहते सहते स्वयं ही कश्मीर बना लेना कहाँ की बुद्धिमत्ता है? नखरे सहने की राह सदा ही मूर्खता के गड्ढों से बचा कर रखें, हम सब। कभी न कभी तो दो टूक उत्तर का भी स्थान हो हमारे वचनों में।

25.9.10

जाति क्या है?

बड़ा सरल प्रश्न है। इस पर जब इतना कहा जा चुका है, इस पर जब इतना सहा जा चुका है, तब पूछने का औचित्य? राजनीति में जाना है या समाज को बाटने की एक नयी विधि का श्रेय लेना है? नहीं, तब क्या बौद्धिकता में खुजली हो रही है जो इतना विवादास्पद विषय उठा रहे होयह एक ऐसा शब्द है, जिसे सुन बहुतों की भृकुटियाँ तन जाती हैं पर मेरा वचन है, कुछ भी ऐसा न लिखने का, जिससे किसी को ठेस पहुँचे।

मेरे परम मित्र हैं, श्री लक्ष्मण सिंह। उनके पिताजी न्यायिक सेवा में ऊँचे पदस्थ रहे, घर में सुसंस्कृत संस्कार। सेवा की अनिवार्यताओं के कारण आम समाज से थोड़ा अलग रहा उनका प्रारम्भिक जीवन। युवक होने तक जाति जैसे किसी शब्द के सम्पर्क में नहीं आयी उनकी विचारधारा। उन्हें अटपटा लगना तब प्रारम्भ हुआ, जब जाति जैसी उपाधि के नाम पर समाज की ऊर्जा को कई दिशाओं में भटकते देखा। मेरा अनुभव भले ही कमलपत्रवत न रहा हो पर मुझे भी सदैव ही जाति के प्रसंग पर चुप रहना श्रेयस्कर लगा है। पता नहीं आज क्यों लिखने की ऊर्जा जुटा पा रहा हूँ?
  
कोई भी ऐसी विचारधारा जिसमें बाटने के बीज छिपे हों, लक्ष्मण सिंह जैसे व्यक्तियों को दुख देगी।

तब क्या विविधतायें न हों जगत में?

विविधतायें हों, उनकी नग्नता न हो। विविधतायें भी शालीन स्वरूप धरे रह सकती हैं।

समृद्धि के समय विविधतायें बाग में खिले हुये पुष्पों की भाँति होती हैं, सबका अपना महत्व, सबकी अपनी प्रसन्नता। जब संसाधन कम पड़ते हैं और विपत्ति आती है, तब यही अन्तर शूल की भाँति हृदय में चुभने लगता है। किसी की उपलब्धि को उसको दी हुयी उपाधि से जोड़कर देखा जाने लगता है, उसी उपाधि को अपने कष्ट का कारण बनाकर विचार प्रक्रिया में रोपित कर दिया जाता है। अपने दुख का कारण अपने भीतर न ढूढ़कर दूसरे की उपाधियों में ढूढ़ने का प्रयत्न होने लगता है। समूह बनने लगते हैं, उनकी स्तुतियाँ होने लगती हैं, अपना तुच्छ भी उनके श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर लगता है।

जो भी पौराणिक कारण हो पर हर समूह की अपनी स्वस्थ परम्परायें होती हैं और अपने हिस्से की दुर्बलतायें। विकासशील समूह अपनी दुर्बलताओं की निर्मम बलि देकर आगे बढ़ते जाते हैं और मानसिक, बौद्धिक व आर्थिक रूप से सुदृढ़ होते जाते हैं। जो उन्मत्त रहते हैं अपने इतिहास के महानाद से, उन्हे भविष्य की पदचाप नहीं सुनाई पड़ती है और समय के चक्र में उनके क्षरित शब्द ही गूँजते रहते हैं।

हमें यदि आपस में लड़ने का बहाना चाहिये तो दसियों कारण उपस्थित हैं। भाई भाई पर घात लगाये बैठे हैं। लड़ाके शेर मेमनों को किसी न किसी विधि से लील ही जायेंगे। हमें यदि अपनी विविधता संरक्षित रखनी है तो आपत्ति काल में उसे सुरक्षित रख, कौरव व पाण्डव न बन, 105 बन खड़े हों। होना यह चाहिये कि विपत्ति के समय हमें अपनी समानतायें उभारनी चाहिये, विपत्ति से जूझने के लिये। जब देश डूबा हो, समाज रुग्ण हो, तब भी हमें यदि अपने समूह का गुणगान करने का समय मिल जाये तो आश्चर्य होना चाहिये। जीत के बाद जब विजयोत्सव मनेगा, तब अपनी परम्पराओं के अनुसार आनन्द मनायेंगे हम सब, अपने अपने इष्ट पूजेंगे हम सब।

उद्गार एक कविता के माध्यम से बहा है,

नर-नारी की मान-प्रतिष्ठा, पाने नित अधिकार लड़ रही,
भाषा लड़ती, वर्ण लड़ रहे, बुद्धि विषमता ओर बढ़ रही ।
देश, प्रदेश, विशेष लड़ रहे, भौहें सकल प्रकार चढ़ रहीं,
नयी, पुरातन पीढ़ी, पृथक विचार, घरों के द्वार लड़ रही ।

धर्म लड़े, बन हठी खड़े हैं, उस पर भी अब जाति लड़ी है,
देखो तो किस तरह मनुज की, लोलुपता हर भाँति लड़ी है ।।

22.9.10

चार प्रभातीय अध्याय

वैवाहिक जीवन की सीमायें आपको बहुत अधिक बहकने नहीं देती हैं, किसी भी दिशा में। जब मुझे अपने मानसिक ढलान को रोकने के 21 दिवसीय प्रयास सफल होते दिख रहे थे, श्रीमती जी की आपत्ति, सीमा बना कर ठोंक दी गयी। आप तो स्वयं युवा होते जा रहे हैं, पर मेरा क्या? क्या करना है? सुबह सुबह टहलने चलते हैं फ्रीडम पार्क, साथ साथ, नित चार चक्कर, कुल 4 किलोमीटर, बस केवल 21 दिन के लिये। इतने निश्चय व आत्मविश्वास के सम्मुख मेरी कई व्यस्ततायें और तर्क ध्वस्त हो गये।

जब तेज चलने वाले को, किसी का साथ देने के लिये धीरे धीरे चलना पड़े तो शाऱीरिक व्यायाम तो असम्भव ही है पर मानसिक व्यायाम में कहाँ के पहरे लगे हैं? पिछले कई दिनों में चार चक्करों के मंथन में विचारणीय अवलोकन जन्म ले रहे हैं। आज सब के सब साथ में उपस्थित थे। आईये, एक एक कर के देखते हैं।

पार्क के बाहर ही एक खुले मैदान में टेन्ट लगा है। पर्युषण पर्व पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु प्रवचन सुन रहे हैं। बाहर विविध प्रकार के व्यंजन मेजों पर सजे हैं, भण्डारे की तैयारी है। उन पर अलिप्त सी दिखने वाली संलिप्त दृष्टि डाल कर पार्क में टहलना प्रारम्भ कर देता हूँ। पहले चक्कर में श्रीमती जी की महत्वपूर्ण सी लगने वाली कई बातों पर हाँ, हूँ तो किया पर मन उसी भण्डारे पर टिका रहा। सुबह सुबह प्रवचन का इतना कैलोरिफिक उत्सव?

दूसरे चक्कर के प्रारम्भ में ही एक युवा युगल दिखता है, अविवाहित क्योंकि उनके चेहरे पर भविष्य को लेकर असमंजस स्पष्ट था। पिछले कई दिनों से नित अपनी समस्याओं के भँवर में डूबते उतराते दिख रहे हैं दोनों। प्रेम विवाह के इस उबड खाबड़ रास्तों से हम तो बचे रहे पर सुबह सुबह उन्हें वहाँ देख दो विचार ही मन में आये। पहला, घर में क्या बोल कर आते होंगे, संभवतः स्वास्थ्य बनाने। दूसरा, कितने भाग्यशाली हैं कि रात में एक दूसरे को स्वप्नों में निहार कर सुबह पुनः उसे मूर्त रूप देने में लग जाते हैं।

तीसरे चक्कर में एक विदेशी दिखते हैं, दौड़ लगा रहे हैं। यहाँ किसी बैठक में आये होंगे क्योंकि उन्हे पहली बार ही देखा है। दिन प्रारम्भ करने के पहले शरीर पर ध्यान देना एक गुणवत्तापूर्ण जीवन का पर्याय है। उन्हें देख कर हमारी भी दौड़ने की इच्छा बलवती हुयी पर तुरन्त अपनी भूमिका का भान होता है और हम अपनी चाल ढीली कर पुनः मानसिक व्यायाम में उतर जाते हैं। सुबह की दो विभिन्न गतियों पर मन बहुत देर तक खिंचा रहा।

चौथे चक्कर में, पाँच लड़कियों को देखता हूँ, पिछले कई दिनों से देख रहा हूँ, सप्ताहान्त को छोड़कर। निश्चय ही आसपास के किसी कॉलेज से होंगी। कॉलेज खुलने से पहले का समय पार्क की शीतल हवा में व्यतीत करती हैं और कहीं बेंच पर बैठ कर या तो बातें करती हैं या कोई पुस्तक पढ़ती हैं। प्राकृतिक वातावरण में और सुबह की ग्राह्य वेला में समय का सुन्दर उपयोग। मुझे भी पुस्तक पढ़ना अच्छा लगता है सुबह सुबह पर श्रीमती जी के सामने उस विषय पर दी टिप्पणी व दिखायी गयी उत्सुकता घातक हो सकती थी अतः अन्यत्रमना से प्रतीत होते हुये टहलते रहे।

कारसेवा कर वापस आते समय तक भंडारा प्रारम्भ हो चुका था। कई पकवान दिख रहे थे। कदम ठिठके, सोचा कि घुल मिल लेते हैं क्योंकि चेहरे से पूरी तरह अहिंसक और निर्लिप्त जैनी लग रहे थे। आशाओं को अर्धांगिनी का समर्थन न मिलने से अर्धमना होकर रह गये।

घर पर पाँचवाँ अध्याय प्रतीक्षा में था।

ब्लॉगिंग का। हमें तो आपका ही सहारा है।

18.9.10

कटी पतंग से इश्किया तक

चालीस वर्षों में एक पीढ़ी दूसरी में पदोन्नति पा जाती है पर नहीं भुलाये जा पाते हैं वह अनुभव व भावनायें जो हम जी आये होते हैं। बहुत से गुदगुदा जाने वाले क्षणों में हमारे प्रेम की अवधारणा कहीं न कहीं छिपी रहती है। किसी व्यक्ति विशेष के लिये प्रेम की यह अवधारणा भले ही न बदले पर समाज में आया बदलाव भी आँखों से ओझल नहीं किया जा सकता है। 1970 से 2010 तक, ये बदलाव क्या रंग लाये हैं, यदि देखना चाहें तो आपको मैं टहला लाता हूँ।

कटी पतंग नामक फिल्म आयी थी 1970 में। एक विधवा(कटी पतंग) के प्रति उमड़ता नायक का प्रेम व्यक्त होता है, एक गीत के माध्यम से। राजेश खन्ना आशा पारिख को नाव में बिठा कर ले जा रहे हैं और गा रहे है "जिस गली में तेरा घर न हो बालमा, उस गली से हमें तो गुज़रना नहीं"। पूरा गीत सुने तो भाव निकलेगें पूर्ण समर्पण व एकनिष्ठता के। आज भी जब कोई युवा नायिका वह गीत सुनती है तो स्वयं को सातवें आसमान में पाती है, जबकि वही गीत सुनकर युवा नायक स्वयं को सात कारागारों में घिरा पाता है।

इस वर्ष एक फिल्म आयी, इश्किया। इसमें भी एक विधवा के प्रति नायकों का प्रेम उमड़ता है, एक दूसरे गीत के माध्यम से। नसीरुद्दीन शाह व अरशद वारसी विद्याबालन को देख गाना गाते हैं "डर लगता है तनहा सोने में जी, दिल तो बच्चा है जी"। इस गीत के बोल दिल की असंतुलित, बच्चासम और कुछ भी कर जाने की प्रवृति पर केन्द्रित हैं। इस गाने को सुन भले ही नायिकायें उतना सहज न अनुभव करें पर नायकगण अपनी उन्मुक्तता दिल के बच्चेपन पर न्योछावर कर बड़ा स्वच्छन्द अनुभव करते हैं।

जिन्होने अपनी युवावस्था में कटी पतंग आधारित प्रेम अवधारणा अपनी मानसिकता में सजायी है, उन्हें इश्किया के विचार भाव छिछोरापन लगेंगे, वहीं आज की पीढ़ी को कटी पतंग जैसा समर्पण सम्पूर्ण-मूर्खता लगती है।

1970 में मेरा जन्म नहीं हुआ था और 2010 में हम प्रेम के अवस्था को पार कर गृहस्थी में बँधे हैं। इस प्रकार हम तो कोई भी छोर नहीं पकड़ पाये। पर कुछ वयोवृद्ध व कुछ उदीयमान ब्लॉगर अब तक इस पोस्ट की तह तक पहुँच चुके होंगे और करने के लिये टिप्पणी भी सोच ली होगी। उन्हीं का प्रकाश, प्रेम के इस अन्धतम में जी रहे हम अल्पज्ञों का ज्ञान बढ़ा पायेगा। कुछ व्यक्तित्व जो प्रेमजगत के अत्याधिपति हैं, निश्चय ही अल्पज्ञों के मार्गदर्शन में स्वतः आगे आयेंगे।

पता नहीं कि कौन सा सच आपके हृदय की धड़कन है?

आपके प्रेम की अवधारणा जिस पर भी ठीक उतरती हो आप वह गाना सुन लीजिये। दोनों के ही सुर उतने ही उखड़े हैं जितना इस काल में प्रेम पर विश्वास। मेरे गाने के पूर्व दुस्साहस को सराहने का फल मात्र है यह श्रवण। अपना बढ़ना बन्द करने के प्रयास में मैंने कुछ दिन पहले ये दोनों गीत मंच से गाये थे। जब गीत चयन कर रहा था तब यह आशा नहीं थी कि मैं प्रेम के दो छोरों में, सारे सुनने वालों को बाँधने का प्रयास कर रहा हूँ।


जिस गली में तेरा घर न हो बालमा


दिल तो बच्चा है जी

15.9.10

धन घमंड अब गरजत घोरा

मुझे कई दिनों से एक बात कचोट रही थी कि किसी धनवान का धन उसकी सामाजिकता को किस तरह प्रभावित करता है? स्वयं का अनुभव मध्यमवर्गीयता का प्रबल आस्वादन मात्र ही रह पाया। कई धनवान मित्र हैं पर धन को लेकर न मेरी जिज्ञासा रही और न ही उनका खुलापन। किसी धनाढ्य से उसके धन के बारे में पूछना थोड़ा आक्रामक सा प्रतीत होता है और धनाढ्य का स्वयं ही बता देना उस परिश्रम को एक सार्वजनिक स्वरूप दे देना होगा जिससे वह धन अर्जित किया गया है।

धन को साधन के रूप में स्वीकार करने से तो यह लगता है कि धन की मात्रा बढ़ने से सामाजिकता भी बढ़नी चाहिये। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो होता विपरीत ही है। धन के द्वारा लोगों का सामाजिक विस्तार सिकुड़ते ही पाया है।

और अधिक धन की आकांक्षा समय की उपलब्धता कम कर देती है जिससे सम्बन्ध सिकुड़ने लगते हैं। अधिक धन का होना व्यक्ति को समाज की एक विशेष श्रेणी में खड़ा कर देता है, जहाँ पर सामाजिकता कम और दिखावा अधिक होता है। धन चले जाने का या माँग लिये जाने का भय भी धनवान को अन्य वर्गों से दूर रखता है। इन तीन संभावित कारणों के बारे में जब किसी उत्तर पर नहीं पहुँच पाया तो निर्मम हो एक से यह प्रश्न पूछ ही बैठा।

"क्या आपको लगता है कि यदि कोई आपसे बात करने आता है तो उसे केवल आपके धन में रुचि है?"  प्रश्न रूक्ष और आहत करने वाला था और मैं उत्तर की अपेक्षा भी नहीं कर रहा था। असहज उत्तर मिला कि नहीं, ऐसा नहीं है। जो भाव शब्द छिपाना चाह रहे थे, मुखमण्डल ने उन्मुक्तता से बिखेर दिये। ऐसा नहीं है कि धनाढ्य के अतिरिक्त, धन का उल्लेख किसी और को विचलित नहीं करता है। मध्यमवर्गीय के मन में यदि धन घुल गया तो उसका, उसके परिवार का और उसके समाज का विस्तार उस धनाक्त मानसिकता में तिरोहित हो जाता है। निर्धन के लिये तो सदैव ही धन एक चाँद सितारे के उपमानों से कम नहीं है जीवन में।

कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय,
वा खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।

जब पहली बार पढ़ा था यह दोहा तो उतना जीवन्त नहीं लगा था यमक अलंकार का यह उदाहरण। अनुभव के मार्गों में पर इस दोहे को नित्य जीवन पाते देखा है। बौराने की स्थिति में सम्बन्धों का भार उठाना बड़े झंझट का कार्य लगता हो संभवतः। बौराने की स्थिति में सामाजिकता के विस्तार की बात तो दूर, समाज पर ही भार बन जाता है व्यक्ति।

स्वयं का अनुभव इस जीवन में मिल पाये, इतनी प्रतीक्षा न कर पाऊँगा, उत्तरों के लिये। किसी लक्ष्मीपति से इस प्रश्न का उत्तर मिले तो अवश्य बताईयेगा। लक्ष्मीवाहनों से इस विषय पर चर्चा कर अब अपना समय व्यर्थ नहीं करूँगा। आपके लिये भी यही सलाह है।

11.9.10

खबर पक्की है, दुर्दशा जारी है

रेलवे का कलेवर आपको बाहर से सरकारी दिख सकता है पर किसी मल्टीनेशनल की भाँति हमारे अन्दर भी लाभ हानि का भाव कुलबुलाता रहता है। जहाँ पिछले वर्षों की तुलना में उच्च प्रदर्शन प्रसन्नता देता है वहीं निम्न प्रदर्शन उन कारणों का पता लगाने को प्रेरित करता है जो प्रगति में बाधक रहे। वैसे तो हर विभाग के मानक आँकड़े भिन्न हैं पर अन्ततः निष्कर्ष आर्थिक आकड़ों से आँके जाते हैं।

बात झाँसी मण्डल की है, आज से दो वर्ष पहले की। वाणिज्य विभाग का मुखिया होने के कारण एक बैठक में पर्यवेक्षकों के साथ विभिन्न खण्डों की आय पर परिचर्चा कर रहा था। पिछले वर्ष की तुलना में कम आय दिखाने वाले एक दो पर्यवेक्षकों की खिचाई हुयी। उसके बाद प्रफुल्लित मन से लाभ देने वाले खण्डों पर दृष्टि गयी तो झाँसी-महोबा-बाँदा-मानिकपुर खण्ड की आय में लगभग 30 प्रतिशत की वृद्धि थी। सड़कों की बुरी स्थिति व बसों का तीन-चार गुना किराया कारण तो थे पर ऐसी स्थिति तो कई वर्षों से थी। कुछ अवश्य ही अलग कारण था इस वर्ष। पर्यवेक्षक से पूछने पर आशा थी कि वह अपने प्रयासों के विशेष योगदान की स्तुतियाँ गायेगा पर जब उस संवेदनशील ने बोलना प्रारम्भ किया तो उसके नयन आर्द्र थे और गला रुद्ध। वार्ता का सार यह था।

इस वर्ष गाँव के गाँव दिल्ली और पंजाब की ओर पलायन कर रहे हैं। केवल वृद्ध रह गये हैं घरों की रखवाली के लिये। पशुओं को छोड़ दिया गया है अपना चारा ढूढ़ने को, इस आशा में कि वे स्वयं को जीवित रख सकेंगे पालकों के वापस आने तक। दिल्ली में नये निर्माण में व पंजाब में खेतों में काम मिलने का आसरा है इनको। खेत धूप की तीव्रता सह सह चटक चुके हैं। न कोई गुड़ाई करने वाला, न उन पर बनी मड़ैया से उन्हें ममतामयी दृष्टि से निहारने वाला, न बैलों के गले बँधे घुँघुरुओं की छन-छन, न पेड़ के नीचे कोई सूखी रोटी प्याज-नमक के साथ खाने वाला। जमीन के लिये जान लेने और देने की बातें करने वाले, अपनी अपनी जमीन को त्यक्तमना छोड़ पलायन कर गये हैं। पिछले दो वर्षों से आँखें आसमान पर टिकाये रहने से थक गये निवासी अपने लिये नयी छत ढूढ़ने समृद्धदेश चले गये हैं। जल स्तर भी मुँह मोड़ पाताल में समा गया। तालाब कीचड़ का संग्रहालय बन गये हैं।

उल्लिखित खण्ड उत्तरप्रदेश व मध्यप्रदेश को दसियों बार काटता है। मानचित्र पर लकीर खीचते समय तो कई बारीकियों के कारण खिचपिच मचा चुके लोग, यहाँ के निवासियों की दुर्दशा को मानसूनी कारण का कफन उढ़ा चुके हैं। आल्हा ऊदल की नगरी और तालों का नगर कहे जाने वाले महोबा में जब पानी के टैंकरों से पानी लूटने में हत्यायें होते देखता हूँ तो सारा अस्तित्व ही सिहर उठता है। यही स्थिति रही तो गाँव के साथ साथ नगर भी त्यक्त हो जायेंगे। जब तक दुर्दशा रहेगी, आय में वृद्धि रहेगी। जब दुर्दशा पूर्ण होगी तब न कोई जाने वाला रहेगा और न ही कुछ आय होगी।

बढ़ी हुयी आय के पीछे एक समग्र दुर्दशा देखकर मन चीत्कार कर उठा। कुछ बोल नहीं सका, आँख बन्द कर बैठा रहा। मेरे स्वभाव से परिचित सभी पर्यवेक्षक भी बिना कुछ बोले कक्ष से चले गये। घर आकर बिना कुछ खाये ही भारी पलकें नींद ले आयीं।

कल कई ब्लॉगरों की संस्तुति पर "पीप्ली लाइव" देखने गया तो दो वर्ष पुराना घाव पुनः हरा हो गया। अपने बुन्देलखण्ड में वीरों के रक्तयुक्त इतिहास को अश्रुयुक्त भविष्य में परिवर्तित होते देख मन पुनः खट्टा हो गया।

कल झाँसी बात की, उस खण्ड की आय पूछी, आय अब भी बढ़ रही है।

आप भी दो आँसू टपका लें। खबर पक्की है, दुर्दशा जारी है।

8.9.10

माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं


जीवन में विधि ने लिख डाले, कुछ दुख तेरे, कुछ मेरे हैं,

जीना संग है, फिर क्यों मन में, एकाकी भाव उकेरे हैं ।

ढालो शब्दों में, बतला दो, पीड़ा आँखों से जतला दो,

मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।१।।

 

भटके हम दोनों मन-वन में,

पर बँधे रहे जीवन-क्रम में,

बन प्राण मिला वह जीवन को, 

घर तेरा है, सज्जित कर लो ।

क्यों सम्बन्धों के आँगन में, अब आशंका के डेरे हैं,

मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।२।।

 

निश्चय ही जीवन को हमने,

पाया तपते, मन को जलते,

क्यों पुनः बवंडर बन उठतीं,

मन भूल गया स्मृतियाँ थीं ।

आगन्तुक जीवन-सुख-रजनी, क्यों चिंता-स्याह घनेरे हैं,

मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।३।।

 

अति शुष्क हृदय है, यदि सुख की,

आकांक्षा रह रहकर उठती,

मन में क्यों दुख-चिन्तन आये,

मिल पाये नहीं जो सुख चाहे ।

अर्पित कर दूँगा सुख जो भी, आमन्त्रण से मुँह फेरे हैं,

मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।४।।

 

क्यों मन, आँखें उद्विग्न, भरी,

पड़ती छाया आगत-दुख की,

पहले क्यों शोक मनायेंगे, 

दुख आयेंगे, सह जायेंगे ।

तज कातरता निश्चिन्त रहो, मेरी बाहों के घेरे हैं,

मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।५।।

 

यहीं बसेरा हम दो कर लें, 

जीवन-घट, सुख लाकर भर लें,

और परस्पर होकर आश्रित, 

सुख-आलम्बन बन जायें नित ।

जीवन छोटा, संग रहने को, पल मिले नहीं बहुतेरे हैं,

मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।६।।


4.9.10

आओ, मैं स्वागत में बैठा हूँ

समय के पीछे भागने का अनुभव हम सबको है। यह लगता है कि हमारी घड़ी बस 10 मिनट आगे होती तो जीवन की कितनी कठिनाईयाँ टाली जा सकती थीं। कितना कुछ है करने को, समय नहीं है। समय कम है, कार्य अधिक है, बमचक भागा दौड़ी मची है।

समय बहुमूल्य है। कारण विशुद्ध माँग और पूर्ति का है। समय के सम्मुख जीवन गौड़ हो गया है। बड़े बड़े लक्ष्य हैं जीवन के सामने। लक्ष्यों की ऊँचाई और वास्तविकता के बीच खिंचा हुआ जीवन। उसके ऊपर समय पेर रहा है जीवन का तत्व, जैसे कि गन्ने को पेर कर मीठा रस निकलता है। मानवता के लिये लोग अपना जीवन पेरे जा रहे हैं, मानवता में अपने व्यक्तित्व की मिठास घोलने को आतुर। कुछ बड़ी बड़ी ज्ञानदायिनी बातें जो कानों में घुसकर सारे व्यक्तित्व को बदलने की क्षमता रखती हैं। उनको सुनने के बाद कहाँ विश्राम, एक जीवन कम लगता है उस पर लुटाने को। समय के साथ लगी हुयी है दौड़। जीवन की थकान को उपलब्धि का लॉलीपॉप। मानसिक सन्तोष कि आप के सामने गाँव की नहरिया नहीं, होटल ललित अशोक का स्वीमिंग पूल है। खाने को दाल रोटी नहीं, वाइन व श्रिम्प है। भूख, गरीबी, बेरोजगारी के मरुस्थल नहीं, विकास व ऐश्वर्य की अट्टालिकायें हैं। आप भाग रहे हैं समय के पीछे।

कभी कभी आनन्द व ध्यान के क्षणों में आपने अनुभव किया होगा कि समय रुका हुआ सा है। आप कुछ नहीं कर रहे होते हैं तो समय रुका हुआ सा लगने लगा। अच्छा लेख, कविता, ब्लॉग व पुस्तक पढ़ना प्रारम्भ करते हैं समय रुका हुआ सा लगता है, पता नहीं चलता कि छोटी सुई कितने चक्कर मार चुकी है। न भूख, न प्यास, न चिन्ता, न ध्येय, न आदर्श, न परिवार, न संसार। आपके लिये सब रुका हुआ। अब इतनी बार समय रोक देंगे तो जीवन को सुस्ताने का लाभ मिल जायेगा। प्रेम में पुँजे युगलों से पूछता हूँ कि क्या भाई ! मोबाइल पर 3 घंटे बतिया कर कान व गला नहीं पिराया? अरे, पता ही नहीं चला। सम्मोहन किसमें है? मोबाइल में है, प्रेमी में है, आप में है या होने वाली बात में है। विवाहित मित्र उचक के उत्तर देंगे, किसी में नहीं। वह समय कुछ और था, रुका हुआ लगता था अब तो लगता है बलात् कढ़ील के लिये जा रहा है।

सम्मोहन तो जीवन का ही है, समय का नहीं। जीवन जीने लगते हैं और समय नेपथ्य में चला जाता है। आकर्षण व्यक्तित्व का होता है, आयु का नहीं। महान कोई एक विचार बना देता है, बेचारी व्यस्तता नहीं।

मैं कल्पना करता हूँ कि मैं बैठा हूँ समय से परे, अपने अस्तित्व के एकान्त में। दरवाजे पर आहट होती है, आँखें उठाता हूँ। भंगिमा प्रश्नवाचक हो उसके पहले ही आगन्तुक बोल उठता है। मैं समय हूँ, आपके साथ रहना चाहता हूँ, आपकी गति से चलना चाहता हूँ, मुझे स्वीकार करें। पुनः माँग हुयी और पूर्ति भी, बस दिशा बदल गयी। जीवन समय से अधिक महत्वपूर्ण हो गया।

काल की अग्नि में सबको तिरोहित होना है। मैं दौड़ लगा कर आत्मदाह नहीं करूँगा। अपना जीवन अपनी गति से जीकर आगन्तुक से कहूँगा।

" आओ, मैं स्वागत में बैठा हूँ "

1.9.10

मुरलीधारी मधुर मनोहर


मैं अपूर्ण, प्रभु पूर्ण-पुरुष तुम,

मैं नश्वर, प्रभु चिर-आयुष तुम ।

मैं कामी, प्रभु कोटि काम-रति,

मैं प्राणी, प्रभु सकल प्राण-गति ।

मैं भिक्षुक, प्रभु दानवीर हो,

मैं मरुथल, प्रभु अमिय-नीर हो ।

मैं प्यासा, प्रभु आशा गगरी,

मैं भटकूँ, प्रभु उत्सव-नगरी ।

मैं कुरूप, प्रभु रूप-प्रतिष्ठा,

मैं प्रपंच, प्रभु निर्मल निष्ठा ।

मैं बाती, प्रभु कोटि दिवाकर,

मैं बूँदी, प्रभु यश के सागर ।

मैं अशक्त, प्रभु पूर्ण शक्तिमय,

मैं शंका, प्रभु अन्तिम निर्णय ।

मैं मूरख, प्रभु ज्ञान-सिन्धु सम,

मैं रागी, प्रभु त्याग, तपोवन ।

मैं कर्कश, प्रभु वंशी सुरलय,

मैं ईर्ष्या, प्रभु प्रेम, प्रीतिमय ।

मैं प्रश्नावलि, प्रभु दर्शन हो,

मैं त्यक्या, प्रभु आकर्षण हो ।

मैं आँसू, प्रभु वृन्दावन-सुख,

मैं मथुरा, प्रभु गोकुल उन्मुख ।

मैं मदमत, प्रभु क्षमा-नीर नद,

मैं क्रोधी, प्रभु शान्त, शीलप्रद । 

मैं पंथी, प्रभु अंत-पंथ हो,

मैं आश्रित, प्रभु कृपावंत हो ।

 

मुरलीधारी मधुर मनोहर,

शापित शक्तिहीन सेवक पर,

बरसा दो प्रभु दया अहैतुक,

कृपा करो हे प्रेम सरोवर ।